Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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[18] ********************************************* अन्त पण होयज, एटले ए अनादि अनन्त नज कहेवाय। अने अनादि अनन्तज होय ते जिनेश्वर देवनी प्रतिमा न होय, ए सर्व मान्य सत्य छ। वली स्तूप, खाई, प्रकार, कोट वगेरे शाश्वत होइ शकता नथी एना माटे श्री जिनेश्वर देव पोतेज एवी स्थूल वस्तु ने रहेवानो काल संख्यातो काल कहे छे, ज्यारे शाश्वत वस्तु अनन्तकाल सुधी नी होवी जोइए, एटले जे वस्तु-पदार्थ ने माटे कालनी मर्यादा होय ते अशाश्वत, अने अमर्यादित कालनी जे वस्तु ते शाश्वत, एना माटे श्री जिनेश्वर देव श्री वर्धमान प्रभु पोतेज श्री भगवतीजी सूत्र ना ८ मां शतक ना ६ मां उद्देशा मां कथे छे के -
“सेकित्तं समुच्चय बंधे? समुच्चय बंधे जएणं अगड, तडाग, नदी, दह, वावी, पुक्खरिणी गुंजालियाणं, सराणं, सरपंतियाण, बिलपंतियाणं, देवकूल, सभा, पव्वय, थूभ, खाइयाणं, परिहाणं, पागारट्टालग चरियदार, गोपुर, तोरणाणं, पासायवर सरणलेण आवणाणं सिंघाडग, तिग, चउक्क चच्चर चउम्मुह महापह माइणं छुहा चिच्किख लसिला समुच्चएणं बंधे समुपजइ जहण्णेणं अंतो मुहत्तं उक्कोसेणं संखेजकाल से तं समुच्चय बंधे।"
अर्थ - हवे समुच्चय बंध कोने कहे छे ते कहे छे, हे गौतम! कूवा, तलाव, नदी, द्रह, वावड़ी, पुष्करणीवाव, गुंजाली, पालबंध, तलाव, तलावनी पंक्तिओ, देवालय, राजादिकनी सभा “स्तूप" खाई, प्रकार, कोट, अटाली, कांगरा, द्वार, नगरना द्वार, तोरण गृह, सरणलेण, सिंघाडा ना आकार ना स्थान, त्रिक, चौक, घणा मार्गवालुं स्थानचौक-राजमार्ग वगेरे ने समुच्चय बंध कहे छे, अने तेना स्थिति जघन्य अनन्तर मुहूर्तनी अने उत्कृष्टी संख्याता कालनी।
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