Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
बन्धस्वामित्वविचय में निम्न विषय हैं : कर्मप्रकृतियों का जीवों के साथ बन्ध, कर्मप्रकृतियों की गुणस्थानों में व्युच्छित्ति, स्वोदय बंधरूप प्रकृतियाँ, परोदय बंधरूप प्रकृतियाँ |
वेदना खण्ड में कृति और वेदना नामक दो अनुयोगद्वार हैं । कृति सा प्रकार की है : १. नामकृति, २. स्थापनाकृति, ३. द्रव्यकृति, ४. गणनाकृति, ५. ग्रन्थकृति, ६. करणकृति, ७. भावकृति । वेदना के सोलह अधिकार हैं : १. निक्षेप, २. नय, ३. नाम, ४. द्रव्य, ५. क्षेत्र, ६. काल, ७. भाव, ८. प्रत्यय, ९. स्वामित्व, १०. वेदना, ११. गति, १२. अनन्तर, १३. सन्निकर्ष, १४. परिमाण, १५. भागाभागानुगम, १६. अल्पबहुत्वानुगम । इस खण्ड का परिमाण १६००० पद है ।
aणा खण्ड का मुख्य अधिकार बंधनीय है जिसमें वर्गणाओं का विस्तृत वर्णन है । इसके अतिरिक्त इसमें स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बंध इन चार अधिकारों का भी अन्तर्भाव किया गया है ।
तीस हजार श्लोक - प्रमाण महाबन्ध नामक स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध इन चार विस्तार से वर्णन किया गया है । इस महाबंध की से भी है । जीवस्थान :
प्रारम्भ में आचार्य ने निम्नोक्त मंगलमंत्र दिया है :
छठे खण्ड में प्रकृतिबन्ध, प्रकार के बन्धों का बहुत प्रसिद्धि महाघवल के नाम
णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए
सव्व साहूणं ॥
आचार्यों, उपाध्यायों एवं
इस मंत्र द्वारा ग्रंथकार ने अरिहंतों, सिद्धों, लोक के सब साधुओं को नमस्कार किया है ।
चौदह जीवसमासों ( गुणस्थानों ) के अन्वेषण के लिए आचार्य ने चौदह मार्गणास्थानों का उल्लेख किया है : १. गति, २. इन्द्रिय, ३. काय, ४. योग, ५. वेद, ६. कषाय, ७. ज्ञान, ८. संयम, ९. दर्शन, १०. लेश्या, ११. भव्यत्व, १२. सम्यक्त्व, १३. संज्ञा, १४. आहार ।"
इन्हीं चौदह जीवसमासों के निरूपण के लिए सत्प्ररूपणा आदि आठ अनुयोगद्वार कहे गये हैं । २
१. सू० २-४ ( पुस्तक १ ).
Jain Education International
२. सू० ७.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org