Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास छद्मस्थ तक प्राणिसंख्या संख्येय है। केवलज्ञानियों में सयोगिकेवली एवं अयोगिकेवली सामान्यवत् हैं।'
संयम की अपेक्षा से संयतों में प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगिकेवली तक प्राणिसंख्या सामान्यवत् है। सामायिक एवं छेदोपस्थापन-शुद्धिसंयतों में प्रमत्तसयत से लेकर अनिवृत्तिबादरसाम्परायिकप्रविष्ट उपशमक और क्षपक तक का निरूपण सामान्य की तरह है। परिहारविशुद्धिसंयतों में प्रमत्तसंयत एवं अप्रमत्तसंयत संख्येय हैं । शेष कथन सामान्यवत् है ।
दर्शन की अपेक्षा से चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि असंख्येय हैं। शेष प्ररूपण सामान्य के समान है।
लेश्या की अपेक्षा से कृष्णलेश्या, नीललेश्या एवं कापोतलेश्या वाले जीवों में मिथ्यादृष्टि यावत् असंयतसम्यग्दृष्टि सामान्यवत् हैं। तेजोलेश्या वालों में मिथ्यादृष्टि ज्योतिष्क देवों से कुछ अधिक है, सासादनसम्यग्दृष्टि यावत् संयतासंयत सामान्यवत् हैं, प्रमत्तसंयत एवं अप्रमत्तसंयत संख्येय हैं । पद्मलेश्या वालों में मिथ्यादृष्टि संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च-योनियुक्त प्राणियों के संख्यातवें भागप्रमाण हैं, सासादनसम्यग्दृष्टि यावत् संयतासंयत सामान्यवत् हैं, प्रमत्तसंयत एवं अप्रमत्तसंयत संख्येय हैं। शुक्ललेश्यायुक्त जीवों में मिथ्यादृष्टि यावत् संयतासंयत पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, प्रमत्तसंयत एवं अप्रमत्तसंयत संख्येय हैं, अपूर्वकरण यावत् सयोगिकेवली सामान्यवत् हैं।
भव्यत्व की अपेक्षा से भव्यसिद्धिकों में मिथ्यादृष्टि यावत् अयोगिकेवली सामान्यवत् हैं । अभव्यसिद्धिक अनन्त हैं।"
सम्यक्त्व की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि यावत् अयोगिकेवली सामान्यवत् हैं । क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि सामान्यवत् है, संयतासंयत यावत् उपशान्त-कषायवीतरागछद्मस्थ संख्येय हैं, चारों ( घाती कर्मों के ) क्षपक, सयोगिकेवली एवं अयोगिकेवली सामान्यवत् हैं । वेदकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि यावत् अप्रमत्तसंयत सामान्यवत् हैं । उपशमसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि एवं संयतासंयत सामान्यवत् हैं, प्रमत्तसंयत यावत् उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ संख्येय हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यक्मिथ्यादृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि सामान्य प्ररूपणा के हो समान हैं ।६
१. सू० १४१-१४७ । ४. सू० १६२-१७१ ।
२. सू० १४८-१५४ । ५. सू० १७२-१७३ ।
३. सू० १५५-१६१ । ६. सू० १७४-१८४ ।
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