Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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योग और अध्यात्म नहीं ले सकते उनके लिए उसके साररूप में यह लिखी गई है। यह छः खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में अनित्यत्व आदि बारह भावनाओं का, द्वितीय खण्ड में सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय और पाँच महाव्रतों का, ततीय खण्ड में पाँच समिति, तीन गुप्ति और मोहविजय का, चतुर्थ खण्ड में ध्यान और ध्येय का, पाँचवें खण्ड में धर्मध्यान, शुक्लध्यान, पिण्डस्थ आदि ध्यान के चार प्रकार तथा यंत्रों का और छठे खण्ड में स्याद्वाद का निरूपण है ।
प्रस्तुत कृति का आरम्भ दोहे से किया गया है। इसके पश्चात् ढाल और दोहा इस क्रम से अवशिष्ट भाग रचा गया है। भिन्न-भिन्न देशियों में कुल ५८ ढाल हैं। ___अन्त में राजहंस के प्रसाद से इसकी रचना करने का तथा कुम्भकरण नाम के मित्र के संग का उल्लेख आता है । कर्ता ने अन्तिम ढाल में रचना-वर्ष, ढालों की संख्या और खण्ड नहीं किन्तु अधिकार के रूप में छः अधिकारों का निर्देश किया है । 'खण्ड' शब्द पुष्पिकाओं में प्रयुक्त है। योगप्रदीप :
यह १४३ पद्यों में रचित कृति है। इसमें सरल संस्कृत भाषा में योगविषयक निरूपण है। इसका मुख्य विषय आत्मा है। उसके यथार्थ स्वरूप का इसमें निरूपण किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें परमात्मा के साथ इसके शुद्ध और शाश्वत मिलन का मार्ग-परमपद की प्राप्ति का उपाय बतलाया है। इस कृति में प्रसंगोपात्त उन्मनीभाव, समरसता, रूपातीत ध्यान, सामायिक, शुक्ल ध्यान, अनाहत नाद, निराकार ध्यान इत्यादि बातें आती हैं। चिन्तन के अभाव से मन मानो नष्ट हो गया हो ऐसी उसकी अवस्था को उन्मनी कहते हैं।
इस ग्रन्थ के प्रणेता का नाम ज्ञात नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार ने इसके प्रणयन में हेमचन्द्रसूरिकृत योगशास्त्र, शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णव तथा
१. यह कृति श्री जोतमनि ने सम्पादित की थी और जोधपुर से वीर संवत
२४४८ में प्रकाशित हुई है। इसी प्रकार पं० हीरालाल हंसराज सम्पादित यह कृति सन् १९११ में प्रकाशित हुई है। 'जैन साहित्य विकास मंडल' ने यह ग्रन्थ अज्ञातकर्तृक बालावबोध, गुजराती अनुवाद और विशिष्ट शब्दों की सूची के साथ सन् १९६० में प्रकाशित किया है। इसमें कोई-कोई पद्य अशुद्ध देखा जाता है, अन्यथा मुद्रण आदि प्रशंसनीय है।।
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