Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 290
________________ अनगार और सागार का आचार २७५ अन्वर्थता, धर्म के अधिकारी के लक्षण, सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के प्रकार, पावस्थ आदि का परिहार करने की सूचना, अनुमति का स्वरूप, दर्शनाचार के निःशंकित आदि आठ प्रकारों की स्पष्टता, आठ प्रभावकों का निर्देश, श्रावक के बारह व्रत और उनके अतिचार-इस प्रकार विविध विषयों का निरूपण है ।। ___टीका-श्री मानदेवसूरि ने इस पर एक वृत्ति लिखी है । अन्त की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि किसी प्राचीन वृत्ति के आधार पर उन्होंने अपनी यह वृत्ति लिखी है । प्रारम्भ में एक पद्य तथा अन्त में प्रशस्ति के रूप में दो पद्य लिखे हैं। नवपयपयरण (नवपदप्रकरण) : जैन महाराष्ट्री में रचित १३७ पद्य की यह कृति' ऊकेशगच्छ के देवगुप्तसूरि ने लिखी है । इनका पहले का नाम जिनचन्द्रगणी था। इन्होंने 'नवतत्तपयरण' लिखा है । प्रस्तुत कृति में अरिहन्त आदि नौ पदों का निरूपण होगा ऐसा इस कृति का नाम देखने से प्रतीत होता है, परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। यहाँ तो मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, श्रावक के बारह व्रत और संलेखना इन विषयों का १. यादृश, २. यतिभेद, ३. यथोत्पत्ति, ४. दोष, ५. गुण, ६. यतना, ७. अतिचार, ८. भंग और ९. भावना-इन नौ पदों द्वारा नौ-नौ गाथाओं में विचार किया गया है। पहली गाथा में मंगल, अमिधेय आदि आते हैं, जबकि दूसरी गाथा आवश्यक की देशविरति-अधिकारविषयक चूणि में उद्धृत पूर्वगत गाथा है । इसके अलावा दूसरी भी कोई-कोई गाथा मूल या भावार्थ के रूप में इस चूणि की देखी जाती है । टीकाएँ-स्वयं कर्ता द्वारा वि० सं० १०७३ में रचित स्वोपज्ञ टीका का नाम श्रावकानन्दकारिणी है। इसमें कई कथाएँ आती हैं। इसके अतिरिक्त देवगुप्तसूरि के प्रशिष्य और सिद्धसूरि के शिष्य तथा अन्य सिद्धसूरि के गुरुभाई यशोदेव ने वि० सं० ११६५ में एक विवरण लिखा है । इसे बृहवृत्ति भी कहते १. यह श्रावकानन्दकारिणी नाम की स्वोपज्ञ टीका के साथ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था ने सन् १९२६ में तथा यशोदेव के विवरण के साथ सन् १९२७ में छपाया है । २. इस गच्छ में देवगुप्त, कक्कसूरि, सिद्धसूरि और जिनचन्द्र बार-बार आते है, अतः विवरणकार के गुरु और गुरुभाई के जो एक ही नाम है वे यथार्थ हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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