Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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अनगार और सागार का आचार
२८९.
यह विचारणीय है । इसकी गाथा २ से ७ में श्रावक के अट्ठाईस कर्तव्य गिनाये गये हैं। जैसे कि-१. नवकार' गिनकर श्रावक का जागृत होना, २. मैं श्रावक हूँ, यह बात याद रखना, ३. अणुब्रत आदि कितने व्रत लिये हैं इसका विचार करना, ४. मोक्ष के साधनों का विचार करना। इसके पश्चात् उपर्युक्त २८. कर्तव्यों का निरूपण किया गया है।
बालावबोष-इस पर रामचन्द्रगणी के शिष्य आनन्दवल्लभ ने वि० सं० १८८२ में एक बालवबोध लिखा है । सड्ढविहि (श्राद्धविधि) :
जैन महाराष्ट्री में विरचित सत्रह पद्यों की इस कृति' के रचयिता सोमसुन्दरसूरि के शिष्य रत्नशेखरसूरि हैं। इसमें दिवस, रात्रि, पर्व, चातुर्मास, संवत्सर
और जन्म-इन छः बातों के विषय में श्रावकों के कृत्यों की रूपरेखा दी गई है। ____टोकाएं-इस पर 'विधिकौमुदो' नाम की स्वोपज्ञ वृत्ति वि० सं० १५०६. में लिखी गई है। यह विविध कथाओं से विभूषित है । इसके प्रारम्भ में ९०० श्लोकों की संस्कृत कथा भद्रता आदि गुण समझाने के लिए दी गई है। आगे थावच्चा (स्थापत्या) पुत्र की और रत्नसार की कथाएं आती हैं।।
इस वृत्ति में श्रावक के इक्कीस गुण तथा मूर्ख के सौ लक्षण आदि विविध बातें आती हैं। भोजन की विधि व्यवहारशास्त्र के अनुसार पचीस संस्कृत श्लोकों में दी गई है और इसके अनन्तर आगम आदि में से अवतरण दिये गये हैं । इस विधिकौमुदी में निम्नलिखित व्यक्तियों आदि के दृष्टान्त (कथानक) आते हैं: ___ गाँव का कुलपुत्र, सुरसुन्दरकुमार की पांच पत्नियाँ, शिवकुमार, बरगद की चील (राजकुमारी), अम्बड परिव्राजक के सात सौ शिष्य, दशार्णभद्र, चित्रकार, कुन्तला रानो, धर्मदत्त नृप, सांडनी, प्रदेशी राजा, जीर्ण श्रेष्ठी, भावड
१. यह कृति स्वोपज्ञ वृत्ति के साथ जैन आत्मानन्द सभा ने वि० सं० १९७४
में प्रकाशित की है। मूल एवं विधिकौमुदी टीका के गुजराती अनुवाद के साथ यह देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था ने सन् १९५२ में छापी है। यह गुजराती अनुवाद विक्रमविजयजी तथा भास्करविजयजी ने किया है। इसकी प्रस्तावना ( पृ० ३ ) से ज्ञात होता है कि अन्य तीनः गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं ।
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