Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 320
________________ विधि-विधान-कल्प, मंत्र, तंत्र, पर्व और तीर्थ ३०५. संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य-इन दस प्रकार के धर्मांगों के विषय में एक-एक पूजा और उसके अन्त में जयमाला तथा अन्त में समुच्चय जयमाला इस प्रकार विविध विषय आते हैं। जयमाला के अतिरिक्त समग्र ग्रन्थ प्रायः संस्कृत में है। दशलक्षणव्रतोद्यापन : ___यह ज्ञानभूषण ने लिखा है । इसे दशलक्षणोद्यापन भी कहते हैं । इसमें क्षमा आदि दस धर्मांगों के विषय में जानकारी दी गई है। १. पइट्टाकप्प ( प्रतिष्ठाकल्प ) : भद्रबाहुस्वामी ने इसकी रचना की थी ऐसा उल्लेख सकलचन्द्रगणीकृत प्रतिष्ठाकल्प के अन्त में आता है। २. प्रतिष्ठाकल्प : यह श्यामाचार्य की रचना है ऐसा सकलचन्द्रगणी ने अपने ग्रन्थ 'प्रतिष्ठाकल्प' के अन्त में कहा है। ३. प्रतिष्ठाकल्प : ___ यह हरिभद्रसूरि की कृति कही जाती है । सकलचन्द्रगणी ने अपने 'प्रतिष्ठाकल्प' के अन्त में जिस हरिभद्रसूरिकृत प्रतिष्ठाकल्प का उल्लेख किया है वह यही होगा। परन्तु यह कृति अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। ४. प्रतिष्ठाकल्प : ___ यह कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरिरचित माना जाता है । सकलचन्द्रगणीकृत प्रतिष्ठाकल्प के अन्त में इसी का उल्लेख है, ऐसा प्रतीत होता है । ५. प्रतिष्ठाकल्प : यह गुणरत्नाकरसूरि की रचना है । इसका उल्लेख सकलचन्द्रगणीकृत प्रतिष्ठाकल्प के अन्त में है। ६. प्रतिष्ठाकल्प : यह माघनन्दी की रचना कही जाती है। ७. प्रतिष्ठाकल्प : यह हस्तिमल्ल की रचना है । ८. प्रतिष्ठाकल्प : यह हीरविजयसूरि के शिष्य सकलचन्द्रगणी की कृति' है। इन्होंने गणधरस्तवन, बारह-भावना, मुनिशिक्षास्वाध्याय, मृगावती-आख्यान (वि० सं०. १. देखिए-जिनरत्नकोश, विभाग १ पृ० २६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406