Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 335
________________ ३२० जैन साहित्य का बृहद् इतिहास 'गिरिनारकल्प : धर्मघोषसूरि ने ३२ पद्यों में इसकी रचना की है। इसके आद्य पद्य में उन्होंने अपना दीक्षा-समय का नाम तथा अपने गुरुभाई एवं गुरु का नाम श्लेष द्वारा सूचित किया है। इस कल्प के द्वारा उन्होंने 'गिरिनार' गिरि की महिमा का वर्णन किया है। ऐसा करते समय उन्होंने नेमिनाथ के कल्याणक, कृष्ण एवं इन्द्ररचित चैत्य और बिम्ब, अम्बा और शाम्ब की मूर्ति, रतन, याकुडी और सज्जन द्वारा किया गया उद्धार, गिरिनार की गुफाएँ और कुण्ड तथा जयचन्द्र और वस्तुपाल का उल्लेख किया है । अन्त में पादलिप्तसूरिकृत उपर्युक्त कल्प के आधार पर इस कल्प की रचना की गई है, ऐसा कहा है। प्रवज्जाविहाण (प्रव्रज्याविधान ): इसे प्रव्रज्याकुलकर भी कहते हैं। जैन महाराष्ट्री में रचित इस कुलक की पद्य-संख्या भिन्न-भिन्न देखी जाती है। यह संख्या कम-से-कम २५ की और अधिक-से-अधिक ३४ की है। इसको रचना परमानन्दसूरि ने की है। ये भद्रेश्वरसूरि के शिष्य अभयदेवसूरि के शिष्य थे। टीकाएँ-प्रद्युम्नसूरि ने वि० सं० १३२८ में इसपर एक ४५०० श्लोकपरिमाणवृत्ति लिखी है। ये देवानन्द के शिष्य कनकप्रभ के शिष्य थे। इन्होंने 'समरादित्यसंक्षेप' की भी रचना की है। यह वृत्ति अधोलिखित दस द्वारों में विभक्त है : १. नृत्वदुर्लभता, २. बोधिरत्न-दुर्लभता, ३. व्रत-दुर्लभता, ४. प्रवज्यास्वरूप, ५. प्रव्रज्याविषय, ६. धर्मफल-दर्शन, ७. व्रतनिर्वाहण, ८. निर्वाहकर्तृश्लाघा, ९. मोहक्षितिरुहोच्छेद और १०. धर्मसर्वस्वदेशना । इस प्रकार इसमें मनुष्यत्व, बोधि एवं व्रत की दुर्लभता, प्रव्रज्या का स्वरूप और उसका विषय, धर्म का फल, व्रत का निर्वाह और वैसा करनेवाले की १. यह कल्प गुजराती अनुवाद के साथ 'भक्तामरस्तोत्रनी पादपूर्ति रूप काव्यसंग्रह' ( भा० १) के द्वितीय परिशिष्ट के रूप में सन् १९२६ में प्रकाशित हुआ है। २. यह प्रद्युम्नसूरि की वृत्ति के साथ ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था की ओर से सन् १९३८ में प्रकाशित किया गया है । ३. देखिये-जिनरत्नकोश, वि० १, पृ० २७२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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