Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद इतिहास
टीका-- इस पर स्वयं हरिभद्रसूरि की 'दिक्प्रदा' नाम की संस्कृत टीका है । इसमें जीव की नित्यानित्यता एवं संसारमोचक मत आदि कतिपय चर्चास्पद विषयों का निरूपण है । '
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रत्नकरण्डकश्रावकाचार :
इसे 'उपासकाध्ययन' भी कहते हैं । यह सात परिच्छेदों में विभक्त है । कई विद्वान् इसे आप्तमीमांसा आदि के रचयिता समन्तभद्र की कृति मानते हैं । प्रभाचन्द्र की जो टीका छपी है उसमें तो समग्र कृति पांच ही परिच्छेदों में विभक्त की गई है । इनकी पद्य-संख्या क्रमशः ४१, ५, ४४, ३१ और २९ है । इस तरह इसमें कुल १५० पद्य हैं ।
प्रथम परिच्छेद में सम्यग्दर्शन का स्वरूप बतलाया है । उसमें आप्त, सुदेव, आठ मद, सम्यक्त्व के निःशंकित आदि आठ अंग आदि की जानकारी दी गई है । दूसरे परिच्छेद में सम्यग्ज्ञान का लक्षण देकर प्रथमानुयोग, करणानुयोग चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग का संक्षिप्त स्वरूप दिखलाया है । तीसरे परिच्छेद में चारित्र के सकल और विकल ये दो प्रकार बतलाकर विकल चारित्र के बारह भेद अर्थात् श्रावक के बारह व्रतों का निर्देश करके पाँच अणुव्रत और उनके अतिचारों का वर्णन किया गया है । चौथे परिच्छेद में इसी प्रकार तीन गुणव्रतों का, पाँचवें में चार शिक्षा-व्रतों का, छठे में संलेखना ( समाधिमरण ) का और सातवें में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का निरूपण है ।
१. मूल कृति का किसी ने गुजराती में अनुवाद किया है । यह अनुवाद 'ज्ञान प्रसारक मण्डल' बम्बई ने प्रकाशित किया है। इसकी प्रस्तावना में कहा गया है कि मूल में ४०५ गाथाएँ हैं, परन्तु ३२वीं और ५२वीं गाथा के बाद की एक-एक गाथा टीकाकार की है । अतः ४०३ गाथाएँ मूल की मानी जा सकती हैं और अनुवाद भी उतनी ही गाथाओं का दिया गया है ।
२. यह प्रभाचन्द्र की टीका तथा पं० जुगलकिशोर मुख्तार की विस्तृत हिन्दी प्रस्तावना के साथ माणिकचंद्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला में वि० सं० १९८२ में प्रकाशित हुआ है । इससे पहले हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद के साथ मूल कृति श्री चम्पतराय जैन ने सन् १९१७ में छपाई थी । किसी ने मूल का मराठी अनुवाद भी छपवाया है ।
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