Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद इतिहास
टीकाएँ - १८०० श्लोक - परिमाण की एक टीका वि० सं० १९८५ में हरिभद्रसूरि ने लिखी है । इसके अतिरिक्त दो अज्ञातकर्तृक टीकाएँ भी हैं, जिनमें से एक की हस्तलिखित प्रति १४९८ की मिलती है । हारिभद्रीय टोका की प्रशस्ति ( श्लो० ३) से ज्ञात होता है कि उसके पहले भी दूसरी टीकाएँ लिखी गई थीं और वे बड़ी थीं। किसी ने इस पर अवचूर्णि भी लिखी है ।"
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पंचसुत्तय ( पंचसूत्रक ) :
अज्ञातकर्तृक यह कृति पाँच सूत्रों में विभक्त है । इसके विषय अनुक्रम से इस प्रकार हैं :
१. पाप का प्रतिघात और गुण के बीच का आधान, २. श्रमणधर्म की परिभावना, ३. प्रव्रज्या ग्रहण करने की विधि, ४. प्रव्रज्या का पालन, ५. प्रव्रज्या का फल - मोक्ष ।
प्रथम सूत्र में अरिहन्त आदि चार शरण का स्वीकार और सुकृत की अनुमोदना को स्थान दिया गया है । दूसरे सूत्र में अधर्म-मित्रों का त्याग, कल्याणमित्रों का स्वीकार तथा लोकविरुद्ध आचरणों का परिहार इत्यादि बातें कहो गई। हैं । तीसरे सूत्र में दीक्षा के लिये माता-पिता को अनुज्ञा कैसे प्राप्त करनी चाहिए यह दिखलाया है और चौथे सूत्र में आठ प्रवचन-माता का पालन, भावचिकित्सा के लिए प्रयास तथा लोकसंज्ञा का त्याग — इन बातों का निरूपण है । पाँचवें सूत्र में मोक्ष के स्वरूप का वर्णन आता है ।
टीकाएँ — हरिभद्रसूरि ने इस पर ८८० श्लोक - परिमाण की एक टीका लिखी है । इन्होंने मूल कृति का नाम 'पंचसूत्रक' लिखा है, जबकि न्यायाचार्य यशो
१. प्रो० राजकुमार शास्त्री ने हिन्दी में टीका लिखी है और वह मूल एवं हारिभद्राय टीका के साथ 'रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला' में छपी है । विशेष जानकारी के लिये देखिए - लेखक की प्रशमरति और सम्बन्धकारिका, उत्थानिका, पृ० १२-५.
२. यह गुजराती अनुवाद के साथ जैन आत्मानन्द सभा ने वि० सं० १९७० में प्रकाशित किया है । डा० ए० एन० उपाध्ये ने अंग्रेजी प्रस्तावनासहित सन् १९३४ में छपवाया है ।
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