Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास मोहनीय के अट्ठाईस, चौबीस, सत्रह, सोलह और पन्द्रह प्रकृतिस्थानों को छोड़ कर शेष का संक्रम होता है। सोलह, बारह, आठ, बीस, तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस और अट्ठाईस प्रकृतिस्थानों को छोड़ कर शेष का प्रतिग्रह होता है।'
बाईस, पन्द्रह, ग्यारह और उन्नीस-इन चार प्रकृतिस्थानों में छब्बीस और सत्ताईस प्रकृतिस्थानों का नियमतः संक्रम होता है। सत्रह और इक्कीस प्रकृतिस्थानों में पच्चीस प्रकृतिस्थान का नियमतः संक्रम होता है । यह संक्रमस्थान नियमतः चारों गतियों तथा तीन प्रकार के दृष्टिगतों ( मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यक्-मिथ्यादृष्टि ) में होता है । इसी प्रकार अन्य प्रकृतिस्थानों के संक्रम के विषय में भी सामान्य निर्देश किया गया है ।
आगे यह प्रश्न उठाया गया है कि एक-एक प्रतिग्रहस्थान, संक्रमस्थान एवं तदुभयस्थान की दृष्टि से विचार करने पर भव्य तथा अभव्य जीव किन-किन स्थानों में होते हैं, औदयिकादि पाँच प्रकार के भावों से विशिष्ट गुणस्थानों में से किस गुणस्थान में कितने संक्रमस्थान होते हैं, कितने प्रतिग्रहस्थान होते हैं तथा किस संक्रमस्थान अथवा प्रतिग्रहस्थान की समाप्ति कितने काल से होती है ?
नरकगति, देवगति और ( संज्ञितियंञ्च ) पंचेन्द्रियों में पांच ही संक्रमस्थान होते हैं। मनुष्यगति में सब संक्रमस्थान होते हैं। शेष असंज्ञियों में तीन संक्रमस्थान होते हैं। मिथ्यात्वगुणस्थान में चार, सम्यक्-मिथ्यात्वगुणस्थान में दो, सम्यक्त्वगुणस्थानों में तेईस, विरतगुणस्थानों में बाईस, विरताविरतगुणस्थान में पाँच, अविरतगुणस्थान में छः, शुक्ललेश्या में तेईस, तेजोलेश्या एवं पद्मलेश्या में छः, कापोतलेश्या, नीललेश्या एवं कृष्णलेश्या में पाँच, अपगतवेद, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद
और पुरुषवेद में क्रमशः अठारह, नौ, ग्यारह और तेरह, क्रोधादि चार कषायों में क्रमशः सोलह, उन्नीस, तेईस और तेईस, त्रिविध ज्ञान ( मति, श्रुत और अवधि ) में तेईस, एक ज्ञान ( मनःपर्यय ) के इक्कीस, त्रिविध अज्ञान ( कुमति, कुश्रुत और विभंग ) में पांच, आहारक एवं भव्य में तेईस तथा अनाहारक में पाँच संक्रमस्थान होते हैं। अभव्य में एक ही संक्रमस्थान होता है। आगे यह
१. गा० २७-२८.
२. गा० २९-३०. ३. गा० ३१-३९. गा० २७-३९ शिवशर्मकृत कर्मप्रकृति के संक्रमकरण
प्रकरण की गा० १०-२२ से मिलती-जुलती हैं । ४. गा० ४०-४१.
५. गा० ४२-४८.
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