Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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आगमसार और द्रव्यानुयोग
१५३ सायों के तीव्र आदि अनुभाग को, कोई नोकर्म को, कोई कर्म के उदय को, कोई तीव्रता आदि गुणों से भिन्न प्रतीत होनेवाले को, कोई जीव और अजीव के मिश्रण को तथा कोई कर्म के संयोग को जीव मानता है )।
जैसे सुवर्ण अग्नि में तपाने पर भी अपना सुवर्णत्व नहीं छोड़ता, वैसे कर्म के उदय से तप्त होने पर भी ज्ञानी ज्ञानीपना नहीं छोड़ता-ऐसा १८४ वें पद्य में कहा है।
जैसे विष खाने पर भी ( विष ) वैद्य नहीं मरता, वैसे पुद्गल-कर्म के उदय का भोग करने पर भी ज्ञानी कर्म से नहीं बँधता ( १९५ )।
८५ वें पद्य में कहा है कि यदि आत्मा पुद्गल-कर्म का कर्ता बने और उसी का भोग करे तो वह इन दो क्रियाओं से अभिन्न सिद्ध हो और यह बात तो जैन सिद्धान्त को मान्य नहीं है।
टीकाएं-इस पर अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति नाम की टीका लिखी है। इसमें २६३ पद्य का एक कलश है।' इस टीका के अन्त में, समग्र मूल कृति का स्पष्टीकरण उपस्थित करने के उपरान्त, परिशिष्ट के रूप में निम्नलिखित बातों पर विचार प्रस्तुत किया है :
१. आत्मा के अनन्त धर्म हैं । इस ग्रन्थ में कुन्दकुन्दाचार्य ने उसे मात्र ज्ञानरूप कहा है, तो क्या इसका स्याद्वाद के साथ विरोध नहीं आता ?
२. ज्ञान में उपायभाव एवं उपेयभाव दोनों कैसे घट सकते हैं ?
इस टीका में उन्होंने पवयणसार की स्वोपज्ञ टीका का निर्देश किया है।
जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका संस्कृत में लिखी है । इनके अतिरिक्त इस पर टीका लिखनेवालों के नाम इस प्रकार है : प्रभाचन्द्र, नयकोर्ति के शिष्य बालचन्द्र, विशालकीर्ति और जिनमुनि । इस पर एक अज्ञातकर्तृक संस्कृत टीका भी है।
१. इस कलश पर शुभचन्द्र ने संस्कृत में तथा रायमल्ल और जयचन्द्र ने एक-एक
टीका हिन्दी में लिखी है। २. इसमें पंचत्थिकायसंगह की अपनी टीका का उल्लेख है।
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