Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इन दोनों में से एक भी अब तक उपलब्ध नहीं हुई है । उपर्युक्त वृत्ति का 'मूलवृत्ति' और टीका का 'अर्वाचीन टीका' के नाम से हेमचन्द्रसूरि ने अपनी वृत्ति में निर्देश किया है ।
जीववियार ( जीवविचार ) :
जैन महाराष्ट्री में ५१ आर्या छन्दों में रचित इस कृति ' की ५०वीं गाथा में कर्ता ने श्लेष द्वारा अपना 'शान्तिसूरि' नाम सूचित किया है । इसके अतिरिक्त इनके विषय में दूसरा कुछ ज्ञात नहीं । प्रो० विन्टर्नित्स ने इनका स्वर्गवास १०३९ में होने का लिखा है, परन्तु यह विचारणीय है ।
प्रस्तुत कृति में जीवों के संसारी और सिद्ध ऐसे दो भेदों का निरूपण करके उनके प्रभेदों का वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त संसारी जीवों के आयुष्य, देहमान, प्राण, योनि इत्यादि का विचार किया गया है ।
टीकाएँ:- खरतरगच्छ के चन्द्रवर्धनगणी के प्रशिष्य और मेघनन्दन के शिष्य पाठक रत्नाकर ने सलेमसाह के राज्य में वि० सं० १६१० में घल्लू में प्राकृत वृत्ति के आधार पर संस्कृत में वृत्ति रची थी । यह संस्कृत वृत्ति प्रकाशित हो चुकी है, परन्तु प्राकृत वृत्ति अबतक मिली नहीं है । उपर्युक्त मेघनन्दन ने वि० सं० १६१० में वृत्ति रची थी ऐसा जो उल्लेख जिनरत्नकोश ( वि० १, पृ० १४२ ) में है वह भ्रान्त प्रतीत होता है । वि० सं० १६९८ में समयसुन्दर ने भी एक वृत्ति लिखी थी । ईश्वराचार्य ने अर्थदीपिका नाम की टीका लिखी है और उसके आधार पर भावसुन्दर ने भी एक टीका लिखी है । इनके अतिरिक्त क्षमाकल्याण ने
१. भीमसी माणेक ने लघुप्रकरणसंग्रह में वि० सं० १९५९ में यह प्रकाशित किया है । एक अज्ञातकर्तृक टीका के साथ यह जैन आत्मानन्द सभा की ओर से प्रकाशित किया गया है । इनके सिवाय मूल कृति तो अनेक स्थानों से प्रकाशित हुई है । संस्कृत छाया तथा पाठक रत्नाकरकृत वृत्ति के साथ मूल कृति 'यशोविजय जैन संस्कृत पाठशाला' मेहसाणा ने १९१५ में प्रकाशित की थी । मूल कृति, संस्कृत छाया, पाठक रत्नाकर की वृत्ति ( प्रशस्तिरहित ), जयन्त पी० ठाकर के मूल के अनुवाद तथा वृत्ति के अंग्रेजी सारांश के साथ यह 'जैन सिद्धान्त सोसायटी' अहमदाबाद की ओर से १९५० में प्रकाशित हुआ है । २. देखिए – A History p. 588.
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Vol. II
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