Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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धर्मोपदेश
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इनके अतिरिक्त दूसरी ग्यारह कृतियां सम्यक्त्वकौमुदी के नाम से मिलती हैं। इनमें से चार अज्ञातकतंक' है; अवशिष्ट के रचयिताओं के नाम इस प्रकार हैं : धर्मकीर्ति, मंगरस, मल्लिभूषण, यशःकोति, वत्सराज, यशस्सेन और वादिभूषण । सट्ठिसय ( षष्टिशत ) :
१६१ पद्यों की जैन महाराष्ट्री में रचित इस कृति के प्रणेता भांडागारिक ( भण्डारी ) नेमिचन्द्र हैं । ये मारवाड़ के मरोट गांव के निवासी थे । इन्होंने अपने पुत्र आंबड़ को जिनपतिसूरि के पास दीक्षा दिलायी थी। यही आंबड़ आगे जाकर जिनेश्वरसूरि ( वि० सं० १२४५-१३३१ ) के नाम से प्रसिद्ध हुआ था । नेमिचन्द्र के ऊपर जिनवल्लभसूरि के ग्रन्थों का प्रभाव पड़ा था। इन्होंने अपभ्रंश में ३५ पद्यों में 'जिणवल्लहसूरि-गुणवण्णण' लिखा है । इसके अतिरिक्त इन्होंने 'पासनाहथोत्त' भी रचा है।
सट्ठिसय में अभिनिवेश और शिथिल आचार की कठोर आलोचना की गई है । इसमें सद्गुरु, कुगुरु, मिथ्यात्व, सद्धर्म, सदाचार आदि का स्वरूप समझाया है। इसमें जो सामान्य उपदेश दिया गया है वह धर्मदासगणो की उपदेशमाला से प्रभावित है।
टोकाएं-इसपर एक टीका खरतरगच्छ के तपोरत्न और गुणरत्न ने वि० सं० १५०१ में लिखी है। दूसरी टीका के रचयिता धर्ममण्डनगणी हैं। सहजमण्डनगणी ने इसपर एक व्याख्यान लिखा है । एक अज्ञातकर्तृक अवचूरि भी है। जयसोमगणी ने इसपर एक स्तबक लिखा है तथा सोमसुन्दरगणी ने
१. एक का कर्ता श्रुतसागर का शिष्य है। २. यह अनेक स्थानों से प्रकाशित हुआ है। महाराजा सयाजीराव विश्व
विद्यालय, बड़ोदा ने सन् १९५३ में 'षष्टिशतकप्रकरण' के नाम से यह प्रकाशित किया है। उसमें सोमसुन्दरसूरि, जिनसागरसूरि और मेरुसुन्दर इन तीनों के बालावबोध एवं 'जिणवण्णण' एवं 'पासनाहथोत्त' भी छपा है। इसके अतिरिक्त गुणरत्न की टीका के साथ मूल कृति 'सत्यविजय जैन ग्रन्थमाला', अहमदाबाद ने सन् १९२४ में और गुजराती अनुवाद के साथ मूल कृति हीरालाल हंसराज ने वि० सं० १९७६ में प्रकाशित की है।
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