Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
से जितने शक्य हैं उतने ग्रन्थों के बारे में प्रायः शतकबार मैं यहाँ परिचय देने का प्रयत्न करूँगा । इसका आरम्भ महर्षि पतंजलिकृत 'योगदर्शन' विषयक जैन वक्तव्य से करता हूँ ।
सभाष्य योगदर्शन की जैन व्याख्या :
महर्षि पतंजलि ने १९५ सूत्रों में उपर्युक्त योगदर्शन की रचना की है और उसे चार पादों में विभक्त किया है । उन पादों के नाम तथा प्रत्येक पाद के. अन्तर्गत सूत्रों की संख्या इस प्रकार है :
१. समाधिपाद
२. साधन निर्देश
३. विभूतिपाद ४. कैवल्यपाद
५१
५५
५५
३४
सांख्यदर्शन के अनुसार सांगोपांग योगप्रक्रिया का निरूपण करनेवाले इस योगदर्शन पर व्यास ने एक महत्त्वपूर्ण भाष्य लिखा है । उसका यथायोग्य उपयोग करके न्यायविशारद न्यायाचार्य श्री यशोविजयजी गणी ने इस योगदर्शन के २७ सूत्रों पर व्याख्या लिखी है ।" इस व्याख्या के द्वारा उन्होंने दो कार्य किये हैं : १. सांख्यदर्शन और जनदर्शन के बीच जो भेद है वह स्पष्ट किया है, और २. इन दोनों दर्शनों के बीच जहाँ मात्र परिभाषा का ही भेद है वहाँ उन्होंने समन्वय किया है ।
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पं० श्री सुखलालजी संघवी ने इस व्याख्या का हिन्दी में सार दिया है और वह प्रकाशित भी हुआ है ।
योगदर्शन के द्वितीय पाद के २९ वें सूत्र में योग के निम्नांकित आठ अंग गिनाये हैं : यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । इनमें से यम, नियम और आसन के बदले तर्क के और प्राणायाम से लेकर समाधि तक के पाँच योगांगों के सिंहसूरिंगणीकृत निरूपण पर अब हम विचार करेंगे ।
१. यह व्याख्या विवरण एवं हिन्दी सार के साथ प्रकाशित हुई है ।
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