Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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चतुर्थ प्रकरण योग और अध्यात्म
योग के विविध अर्थ होते हैं। प्रस्तुत में संसार में अनादि काल से परिभ्रमण करते जीव के दुःख का सर्वथा नाश करके शाश्वत आनन्द की दशा प्राप्त कराने वाला-परमात्मा बनाने वाला साधन 'योग' है । संक्षेप में कहें वो मुक्ति का मार्ग उन्मुक्त करनेवाला साधन 'योग' है । यह दैहिक और भौतिक आसक्ति के उच्छेद से शक्य है । ऐसा होने से हमारे देश में भारतवर्ष में और कालान्तर में अन्यत्र तप को योग मानने की वृत्ति उत्पन्न हुई। आगे चलकर ध्यानरूप आभ्यन्तर तप को श्रेष्ठ मानने पर योगी को ध्यान में तल्लीन रहना चाहिए ऐसी मान्यता रूढ़ हुई। इसके पश्चात् योग का अर्थ समदर्शिता किया जाने लगा। इस प्रकार योग का बाह्य स्वरूप बदलता रहा है, जबकि उसका आन्तरिक तथा मौलिक स्वरूप एवं ध्येय तो स्थिर रहा है।
हमारा यह देश योग एवं अध्यात्म की जन्मभूमि माना जाता है। इस अवसपिणी काल में जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हुए हैं। उन्हें वैष्णव एवं शवमार्गी अपने-अपने ढङ्ग से महापुरुष या अवतारी पुरुष मानते हैं। कई उन्हें 'अवत' कहते हैं । वे एक दृष्टि से देखें तो आद्य योगी ही नहीं, योगीराज हैं । ऐसा माना जाता है कि उन्हों से योग-मार्ग का प्रवर्तन हुआ है। अतएव योगविषयक साहित्य की विपुल मात्रा में रचना हुई है, परन्तु वह सर्वांशतः आज उपलब्ध नहीं है, उसमें से अधिकांश तो नामशेष रह गया है । जैन साहित्य के एक अंगरूप योग-साहित्य के लिए भी यही परिस्थिति है। जैन श्वेताम्बर ‘कान्फरेन्स (बम्बई) द्वारा प्रकाशित 'जैन ग्रन्थावली' के पृ० १०९ से ११३ पर 'अध्यात्म ग्रन्थ' शीर्षक के नीचे पचास ग्रन्थों को तालिका दी है। इस विषय के अन्य कई ग्रंथों का उसमें अन्यान्य शीर्षकों के नीचे निर्देश किया गया है। इसके अतिरिक्त जैन ग्रन्थों के प्रकाशन के पश्चात् दुसरे कई ग्रंथ ज्ञात हुए हैं। उनमें
१. इसका धूतरूप अंश आचारांग (श्रुत० १) के छठे अध्ययन के नाम 'धुय'
(सं० धूत) का स्मरण कराता है ।
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