Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास विहाणवीसिया नाम की १७वीं वीसिया । प्रस्तुत योगशतक ग्रन्थ में निम्नलिखित विषय आते हैं :
नमस्कार, योग का निश्चय एवं व्यवहार दोनों दृष्टियों से लक्षण, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र इन तीनों के लक्षण, व्यवहार से योग का स्वरूप, निश्चय योग से फल की सिद्धि, योगी का स्वरूप, आत्मा और कर्म का सम्बन्ध, योग के अधिकारी के लक्षण, अपुनर्बन्धक का लक्षण, सम्यग्दृष्टि के शुश्रूषा, धर्म का राग और गुरु एवं देव का वैयावृत्त्य ( सेवा ) ये तीन लिंग, चारित्री के लिंग, योगियों की तीन कथाएँ और तदनुसार उपदेश, गृहस्थ का योग, साधु की सामाचारी, अपात्र को योग देने से पैदा होने वाले अनिष्ट, योग की सिद्धि, मतान्तर, उच्च गुणस्थान की प्राप्ति की विधि, अरति दूर करने के उपाय, अनभ्यासी के कर्तव्य, राग, द्वेष एवं मोह का आत्मा के दोषों के रूप में निर्देश, कर्म का स्वरूप, संसारी जीव के साथ उसका सम्बन्ध, कर्म के कारण, कर्म की प्रवाह रूप से अनादिता, मूर्त कर्म द्वारा अमूर्त आत्मा पर प्रभाव, रागादि दोषों का स्वरूप तथा तद्विषयक चिन्तन, मैत्री आदि चार भावनाएं, आहारविषयक स्पष्टीकरण, सर्वसम्पत्कारी भिक्षा, योगजन्य लब्धियाँ और उनका फल, कायिक प्रवृत्ति की अपेक्षा मानसिक भावना की श्रेष्ठता के सूचक दृष्टान्तों के रूप में मण्डूकचूर्ण और उसकी भस्म तथा मिट्टी का घड़ा और सुवर्णकलश, विकाससाधक के दो प्रकार, आशयरत्न का वासीचन्दन के रूप में उल्लेख तथा कालज्ञान के उपाय।
योगशतक की गा० ९, ३७, ६२, ८५, ८८, ९२, और ९७ में निर्दिष्ट बातें ब्रह्मसिद्धान्तसमुच्चय के ३७, १३६, १६३, २६३-६५, १७१, ४१३ और ३९२-९४ में पाई जाती हैं ।'
जहाँ तक विषय का सम्बन्ध है, योगबिन्दु में आने वाली योगविषयक कितनी ही बातें योगशतक में संक्षेप में आती हैं। इस बात का समर्थन योगशतक की स्वोपज्ञ टीका में आने वाले योगविन्दु के उद्धरणों से होता है।
स्वोपज्ञ व्याख्या-यह व्याख्या स्वयं हरिभद्रसूरि ने लिखी है। इसका अथवा मूल सहित इस व्याख्या का परिमाण ७५० श्लोक है । इस संक्षिप्त व्याख्या
१. देखिए-मुनि श्री पुण्यविजयजी की प्रस्तावना, पृ० ४. २. देखिए-योगशतक की गुजराती प्रस्तावना पृ० ५४-५५.
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