Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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आगमसार और द्रव्यानुयोग
१६१ अन्तिम गाथा में श्रुतकेवली भद्रबाहु का बारह अंगों एवं चौदह पूर्वो के धारक तथा गमकों के गुरु के रूप में निर्देश है ।
५१ वी गाथा में प्रव्रज्या को जन्म-समय के स्वरूपवाली अर्थात् नग्नरूप, आयुधरहित, शान्त और अन्य द्वारा निर्मित गृह में निवास करनेवाली कहा है।
टोका-इसपर श्रुतसागर की टीका है । अन्तिम तीन गाथाओं को उन्होंने 'चूलिका' कहा है । पृ० १६६ पर पद्मासन और सुखासन के लक्षण दिये हैं ।
५. भावपाहड ( भावप्राभूत )----इसमें १६३ पद्य हैं और उनमें से अधिकांश आर्या छन्द में हैं। इस दृष्टि से उपलब्ध सभी ( आठों) पाहुडों में यह सबसे बड़ा है । केवल इसी दृष्टि से नहीं, परन्तु दूसरी भी अनेक दृष्टियों से यह विशेष महत्त्व का है। इसकी पहली गाथा में 'भावपाहुड' शब्द दृष्टिगोचर होता है। भाव अर्थात् परिणाम की विशुद्धि । इस पाहुड में इस तरह की विशुद्धि से होनेवाले विविध लाभ तथा विशुद्धि के अभाव से होनेवाली विभिन्न प्रकार की हानियां विस्तार से दिखलाई हैं। बाह्य नग्नत्व की तनिक भी कीमत नहीं है, भीतर से आत्मा दोषमुक्त अर्थात् नग्न बना हो तभी बाह्य नग्नत्व सार्थक है। भावलिंग के बिना द्रव्यलिंग निरर्थक है-यह बात स्पष्ट रूप से उपस्थित की गई है।
सच्चा भाव उत्पन्न न होने से संसारी जीव ने नरक और तिर्यञ्च गति में अनेकविध यातनाएँ सहन की हैं और मनुष्य तथा देव के भी कष्ट उठाये हैं। समस्त लोक में, मध्यभाग में गोस्तन (गाय के थन ) के आकार के आठ प्रदेशों को छोड़कर, यह जीव सर्वत्र उत्पन्न हुआ है ।' उसने अनन्त भवों में जननी का जो दूध पीया है, उसकी मृत्यु से माताओं ने जो आँसू बहाये हैं, उसके जो केश और नाखून काटे गये हैं तथा उसने जो शरीर धारण किये हैं उनका परिमाण बहुत ही विशाल है। एक अन्तर्मुहूर्त में उसने निगोद के रूप में ६६३३६ बार, द्वीन्द्रिय के रूप में ८० बार, त्रीन्द्रिय के रूप में ६० बार और चतुरिन्द्रिय के रूप में ४० बार मरण का अनुभव किया है। इसके अलावा, वह पासत्थ ( पार्श्वस्थ ) भावना से अनेक बार दुःखी हुआ है।
बाहुबली को गर्व के कारण केवलज्ञान की अप्राप्ति, निदाता के कारण मधुपिंग मुनि को सच्चे श्रमणत्व का अभाव और वसिष्ठ मुनि का दुःख सहना, १. देखिए, गाथा ३६. २. देखिए, गाथा २८-९.
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