Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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नियमसार :
श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित यह पद्यात्मक कृति ' भी जैन शौरसेनी में है । इसमें १८७ गाथाएँ हैं और टीकाकार पद्मप्रभ मलधारीदेव के मतानुसार यह बारह अधिकारों में विभक्त है । अनन्त सुख की इच्छावाले को कौन-कौन से नियम पालने चाहिए यह यहाँ दिखलाया गया है । नियम अर्थात् अवश्य करणीय | अवश्य करणीय से यहाँ अभिप्रेत है सम्यक्त्व आदि रत्नत्रय । इसमें 'परमात्म' तत्त्व का अवलम्बन लेने का उपदेश दिया गया है । यही तत्त्व अन्तस्तत्त्व, कारणपरमात्मा, परम पारिणामिक भाव इत्यादि नाम से भी कहा जाता है ।
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
नियमसार में निम्नलिखित विषयों की चर्चा की गई है :
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आप्त, आगम और तत्त्वों की श्रद्धा से सम्यक्त्व की उत्पत्ति, अठारह दोषों का उल्लेख, आगम यानी परमात्मा के मुख में से निकला हुआ शुद्ध वचन, जीव आदि छः तत्त्वार्थ, ज्ञान एवं दर्शनरूप उपयोग के प्रकार, स्वभाव - पर्याय एवं विभाव-पर्याय, मनुष्य आदि के भेद, व्यवहार एवं निश्चय से कर्तृत्व और भोक्तृत्व, पुद्गल आदि अजीव पदार्थों का स्वरूप, हेय एवं उपादेय तत्त्व शुद्ध जीव में बन्ध-स्थान, उदय-स्थान, क्षायिक आदि चार भावों के स्थान, जीव- स्थान और मार्गणा - स्थान का अभाव, शुद्ध जीव का स्वरूप, संसारी जीव का सिद्ध परमात्मा से अभेद, सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान की व्याख्या, अहिंसा आदि पाँच महाव्रत की, ईर्ष्या आदि पाँच समिति की तथा व्यवहार एवं निश्चय-नय की अपेक्षा से मनोगुप्ति आदि तीन गुप्ति की स्पष्टता, पंचपरमेष्ठी का स्वरूप, भेदविज्ञान के द्वारा निश्चय चारित्र की प्राप्ति, निश्चय-नय के अनुसार प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, चतुर्विध आलोचना, प्रायश्चित्त, परम समाधि ( सामायिक ) एवं
१. पद्मप्रभ की संस्कृत टीका तथा श्री शीतलप्रसादजी कृत हिन्दी अनुवाद के साथ यह ग्रन्थ 'जैन ग्रन्थ - रत्नाकर कार्यालय' की ओर से वि० सं० १९७२ में प्रकाशित हुआ है । इसके अतिरिक्त Sacred Books of the Jainas सिरीज़ में आरा से इसका अंग्रेजी अनुवाद तथा श्री हिम्मतलाल जेठालाल शाह कृत गुजराती अनुवाद आदि के साथ 'जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट' सोनगढ़ से भी यह प्रकाशित हुआ है ।
२. देखिए —— गुजराती अनुवादवाली आवृत्ति का उपोद्घात, पृ० ६.
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