Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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अन्य कर्मसाहित्य
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देता है । संक्रम के विषय में कुछ अपवाद भी हैं। उदाहरण के लिए तीन प्रकार के दर्शनमोहनीय का संक्रम बंध के बिना भी होता है। दर्शनमोहनीय में चारित्रमोहनीय का संक्रम नहीं होता और चारित्रमोहनीय में दर्शनमोहनीय का संक्रम नहीं होता। आयु की चार प्रकृतियों का एक-दूसरे में संक्रमण नहीं होता। पाठ मूलप्रकृतियों में भी परस्पर संक्रम नहीं होता। संक्रमावलिका, बंधावलिका, उदयावलिका, उद्वर्तनावलिका आदि में प्राप्त कर्मदलिक संक्रमण के योग्य नहीं होते। जिस दर्शनमोहनीय का उदय हो उस दर्शनमोहनीय का किसी में संक्रमण नहीं होता । सास्वादनी और मिश्रदृष्टि जोव किसी भी दर्शनमोहनीय का किसी में भी संक्रमण नहीं कर सकता।
स्थितिसंक्रम का भेद, विशेष लक्षण, उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम-प्रमाण, जघन्य स्थितिसंक्रम-प्रमाण, साद्यादि-प्ररूपणा और स्वामित्व-प्ररूपणा इन छः अधिकारों के साथ विचार किया गया है ।
अनुभागसंक्रम ( रससंक्रम ) का भेद, स्पर्धक, विशेष लक्षण, उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम, जघन्य अनुभागसंक्रम, सादि-अनादि और स्वामित्व इन सात दृष्टियों में व्याख्यान किया गया है।
प्रदेशसंक्रम के पाँच द्वार हैं : सामान्य लक्षण, भेद, साधादि प्ररूपणा, उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम और जघन्य प्रदेशसंक्रम । प्रस्तुत प्रकरण में इन्हीं पांच द्वारों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। यहां तक संक्रमकरण का अधिकार है। इस प्रकरण की कुछ गाथाएँ ( क्रमांक १० से २२) कषायप्राभूत की गाथाओं ( क्रमांक २७ से ३९ ) से मिलती-जुलती हैं।
३-४. उद्वर्तनाकरण और अपवर्तनाकरण-उद्वर्तना और अपवर्तना अर्थात् बद्धि और हानि स्थिति और रस की होती है, प्रकृति और प्रदेश की नहीं। विवक्षित स्थिति अथवा रस वाले कर्मप्रदेशों की स्थिति अथवा रस में वृद्धि हानि करना उद्वर्तना-अपवर्तना कहलाता है। प्रस्तुत प्रकरण में कर्मस्थिति एवं कर्मरस की उद्वर्तना व अपवर्तना का विचार किया गया है । उद्वर्तना दो प्रकार की होती है : निर्याघाती और व्याघाती। अपवर्तना भी नियाघात और व्याघात के भेद से दो प्रकार की है।"
३. गा. ४४-५९.
१. गा. १-३. ४. गा. ६०-१११.
२. गा. २८-४३. ५. गा.१-१०.
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