Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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प्रथम प्रकरण
आगमिक प्रकरणों का उद्भव
समग्र जैन वाङ्मय के आगमिक और आगमेतर इस प्रकार दो विभाग किये जा सकते हैं । आगमिक साहित्य अर्थात् आगम और उनसे सम्बद्ध व्याख्यात्मक ग्रन्थ । इनसे भिन्न साहित्य 'आगमेतर' है और वह आगमों की भाँति 'आगमप्रविष्ट' नहीं, किन्तु 'आगमबाह्य' है।
आगमों के आधार पर रचित प्रकरणों को इस विभाग में 'आगमिक प्रकरण' कहा गया है। दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द के भी ग्रन्थों का समावेश आगमिक प्रकरणों में किया गया है। यह समग्र वाङ्मय आगमेतर साहित्य का एक भाग है। __ जैन आगमों में दिदिवाय ( दृष्टिवाद ) नामक बारहवें अंग का महत्त्व एवं विशालता को दृष्टि से अग्र स्थान है। इसमें भी उसका पुन्वगय ( पूर्वगत ) नामक उपविभाग विशेष महत्त्व का है। इसके पुव्व ( पूर्व ) नाम के उपविभाग
और पुव्व के पाहुड (प्राभृत ) के नाम से प्रसिद्ध अनुविभागों में से कतिपय प्राभृतों के नाम का विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें अमुकअमुक विषय से सम्बद्ध निबन्ध के समान निरूपण होगा। इस समय 'दृष्टिवाद' लुप्त हो गया है, अतः उसमें आये हुए प्रकरणों के बारे में कुछ कहने योग्य रहता ही नहीं है।
'पूर्वगत' की रचना के अनन्तर आयार ( आचार ) आदि ग्यारह अंगों की तथा कालान्तर में इतर आगमों की रचना हुई। इनमें से जिन विभिन्न पइण्णगों ( प्रकीर्णकों) की रचना हुई वे सब इस समय उपलब्ध नहीं हैं। किन्तु वे ( उपलब्ध और अनुपलब्ध प्रकीर्णक ) प्राभृत आदि की रचना के पश्चात् लिखित आगमिक प्रकरणों के उद्भव का आदि-काल अवश्य सूचित करते हैं।
उपलब्ध आगमों में 'उत्तरज्झयण' ( उत्तराध्ययन ) के कई अध्ययन और 'पण्णवणा' ( प्रज्ञापना ) का प्रत्येक पय (पद) एक-एक विषय का क्रमबद्ध निरू
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