Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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कषायप्राभृत
९५.
भी बताया गया है कि किन-किन जीवों में कौन-कौन से संक्रमस्थान नहीं पाये जाते । '
वेदक अर्थाधिकार में निम्नलिखित प्रश्न विचारणीय बताये गये हैं :
कौन जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को उदयावली में प्रविष्ट करता है ? कौन जीव किस स्थिति में प्रवेशक होता है ? कौन जीव किस अनुभाग में प्रवेशक होता है ? इनका सान्तर व निरन्तर काल कितना होता है ? उस समय में कौन जीव अधिक-से-अधिक तथा कौन जीव कम-से-कम कर्मों की उदीरणा करता है ? प्रतिसमय उदीरणा करता हुआ वह जीव कितने समय तक निरन्तर उदीरणा करता रहता है ? जो जीव स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेशाग्र में जिसका संक्रमण करता है, जिसे बांधता है तथा जिसकी उदीरणा करता है वह किससे अधिक होता है ?२
उपयोग अर्थाधिकार में निम्नोक्त प्रश्नों का निर्देश किया गया है :
किस कषाय में कितने काल तक उपयोग होता है ? कौन-सा उपयोगकाल किससे अधिक है ? कौन किस कषाय में निरन्तर उपयोगयुक्त रहता है ? एक भवग्रहण में तथा एक कषाय में कितने उपयोग होते हैं एवं एक उपयोग में तथा एक कषाय में कितने भव होते हैं ? किस कषाय में कितनी उपयोग- वर्गणाएँ होती हैं तथा किस गति में कितनी वर्गणाएँ होती हैं ? एक अनुभाग में और एक कषाय में एक काल की अपेक्षा से कौन-सी गति सदृशरूप से उपयुक्त होती है तथा कौन-सी गति विसदृशरूप से उपयुक्त होती है ? सदृश कषाय-वगंणाओं में कितने जीव उपयुक्त हैं, इत्यादि ? 3
चतुःस्थान अर्थाधिकार में ग्रन्थकार ने बताया है कि क्रोध, मान, माया और लोभ के चार-चार भेद हैं । क्रोध के चार भेद नगराजि, पृथिवीराजि, वालुकाजि और उदकराजि के समान हैं। मान के चार भेद शैलघन, अस्थि, दारु और लता के समान हैं । माया के चार भेद बाँस की जड़, मेंढे की सींग, गोमूत्र और अवलेखनी के सदृश हैं । लोभ के चार भेद कृमिराग, अक्षमल, पांशुलेप और हारिद्रवस्त्र के सदृश हैं ।
व्यञ्जन अर्थाधिकार में क्रोध, मान, माया और लोभ के एकार्थक पद बताये गये हैं । क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, वृद्धि, झंझा, द्वेष और
१. गा० ४९-५४.
३. गा० ६३-६९.
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२. गा० ५९-६२.
४. गा० ७०-७३.
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