Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
विवाद एकार्थक हैं । मान, मद, दर्प, स्तम्भ, उत्कर्ष, प्रकर्ष, समुत्कर्ष, आत्मोत्कर्ष, परिभव और उत्सिक्त एकार्थक हैं । माया, सातियोग, निकृति, वंचना, अनृजुता, ग्रहण, मनोज्ञमार्गण, कल्क, कुहक, गूहन और छन्न एकार्थक हैं । काम, राग, निदान, छन्द, स्वत, प्रेय, द्वेष, स्नेह, अनुराग, आशा, इच्छा, मूर्च्छा, गृद्धि, शाश्वत, प्रार्थना, लालसा, अविरति, तृष्णा, विद्या और जिह्वा - ये बीस पद लोभ के पर्यायवाची हैं ।"
दर्शन मोहोपशामना अर्थाधिकार में आचार्य ने निम्नोक्त प्रश्नों का समाधान किया है :
' दर्शनमोह के उपशामक का परिणाम कैसा होता है ? किस योग, कषाय एवं उपयोग में वर्तमान, किस लेश्या से युक्त तथा कौन-से वेदवाला जीव दर्शनमोह का उपशामक होता है ? दर्शन मोहोपशामक के पूर्वबद्ध कर्म कौन-कौन से हैं ? वह कौन-कौन से नवीन कर्माशों को बाँधता है ? किन-किन प्रकृतियों का प्रवेशक है ? उपशमनकल से पूर्व बन्ध अथवा उदय की अपेक्षा से कौन-कौन से कर्माश क्षीण होते हैं ? कहाँ पर अन्तर होता है ? कहाँ किन कर्मों का उपशमन होता है ? उपशामक किस-किस स्थिति अनुभागविशिष्ट कौन-कौन-से कर्मों का अपवर्तन करके किस स्थान को प्राप्त करता है ? अवशिष्ट कर्म किस स्थिति एवं अनुभाग को प्राप्त होते हैं ?
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दर्शन मोहक्षपणा अर्थाधिकार में आचार्य ने बताया है कि नियम से कर्मभूमि में उत्पन्न एवं मनुष्यगति में वर्तमान जीव ही दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक अर्थात् प्रारम्भ करने वाला होता है किन्तु उसका निष्ठापक अर्थात् पूर्ण करने वाला चारों गतियों में होता है । मिथ्यात्ववेदनीय कर्म के सम्यक्त्व प्रकृति में अपवर्तित अर्थात् संक्रमित होने पर जीव दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक होता है । वह कम-से-कम तेजोलेश्या में विद्यमान होता है तथा अन्तर्मुहूर्त तक दर्शनमोह का नियमतः क्षपण करता है | दर्शनमोह के क्षीण हो जाने पर देव एवं मनुष्य सम्बन्धी नामकर्म तथा आयुकर्म का स्यात् बन्ध करता है और स्यात् नहीं भी करता । जीव जिस भव में क्षपण का प्रस्थापक होता है उससे अन्य तीन भवों का नियमतः उल्लंघन नहीं करता । दर्शनमोह के क्षीण हो जाने पर तीन भवों में
२. गा० ८६-९०.
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२. मा० ९१ - ९४.
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