Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास १. बन्धन, २. संक्रमण, ३. उद्वर्तना, ४. अपवर्तना, ५. उदीरणा, ६. उपशमना, ७. निधत्ति और ८. निकाचना । गाथा इस प्रकार है :
बंधण संकमणुव्वट्टणा य अववटणा उदीरणया। उवसामणा निहत्ती निकायणा च त्ति करणाइं ॥२॥
१. बन्धनकरण- करण का अर्थ वीर्यविशेष होता है इस बात को दृष्टि में रखते हुए ग्रन्थकार ने आगे की गाथा में वीर्य का स्वरूप बताया है। वीर्यान्तराय कर्म के देशक्षय (क्षयोपशम ) अथवा सर्वक्षय से वीर्यलब्धि उत्पन्न होती है। उससे उत्पन्न होने वाला सलेश्य ( लेश्यायुक्त ) प्राणी का वीर्य (शक्ति) अघिसंधिज अर्थात् बुद्धिपूर्वक प्रवृत्तिवाला अथवा अनभिसंधिज अर्थात् अबुद्धिपूर्वक प्रवृत्तिवाला होता है। वीर्य की हीनाधिकता का विचार करते हुए आचार्य ने योग अर्थात् प्रवृत्ति का निम्नलिखित दस द्वारों से वर्णन किया है : १. अविभाग, २. वर्गणा, ३. स्पर्धक, ४. अन्तर, ५. स्थान, ६. अनन्तरोपनिधा, ७. परम्परोपनिघा, ८. वृद्धि, ९. समय और १०. जीवा
ल्पबहुत्व ।।
__ योग का प्रयोजन बताते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि योग से प्राणी शरीरादि के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर औदारिकादि पाँच प्रकार के शरीर के रूप में परिणत करता है। इसी प्रकार योग से भाषा, श्वासोच्छ्वास तथा मनोरूप पुद्गलों का भी ग्रहण करता है एवं उन्हें तद्रूप से परिणत करता हुआ उनका विसर्जन करता है। परमाणुवर्गणा, संख्यातप्रदेशी वर्गणा, असंख्यातप्रदेशी वर्गणा
और अनन्तप्रदेशी वर्गणा ये सब वर्गणा ( पुद्गल-परमाणुओं की श्रेणियाँ अथवा दलविशेष ) अग्रहणीय हैं। इनके बाद की अभव्यों के अनन्तगुण अथवा सिद्धों के अनन्तभाग जितने प्रदेश वाली पुद्गल-वर्गणाएँ त्रितनु अर्थात् तीन शरीररूप से ग्रहण करने योग्य हैं। तदुपरान्त अग्रहणान्तरित तेजस, भाषा, मन और कर्मरूप से ग्रहण करने योग्य वर्गणाएं हैं। तदुपरान्त ध्रुवाचित्त और अध्रुवाचित्त वर्गणाएं हैं। इनके बाद बीच-बीच में चार शून्य वर्गणाएं हैं और प्रत्येक शून्यवर्गणा के ऊपर प्रत्येकशरीर-वर्गणा, बादरनिगोद-वर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा तथा अचित्तमहास्कन्ध-वर्गणा है। ये वर्गणाएँ गुणनिष्पन्न स्वनामयुक्त हैं अर्थात् नाम के अनुसार अर्थवाली हैं एवं अंगुल के असंख्यातवें भाग के
१. गा. ५-१६.
२. गा. १७.
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