Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास वेदनस्वामित्वविधान में यह प्रतिपादन किया गया है कि नैगम एवं व्यवहार नय की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् एक जीव के होती है, कथंचित् एक नोजीव के होती है, कथंचित् अनेक जीवों के होती है, कथंचित् अनेक नोजीवों के होती है, कथंचित् एक जीव और एक नोजीव के होती है, कथंचित् एक जीव और अनेक नोजीवों के होती है, कथंचित् अनेक जीवों और एक नोजीव के होती है, कथंचित् अनेक जीवों और अनेक नोजीवों के होती है। इसी प्रकार शेष सात कर्मों के विषय में समझना चाहिए। संग्रह नय की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय वेदना एक जीव के होती है अथवा अनेक जीवों के होती है। शब्द और ऋजुसूत्र नयों की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय वेदना एक जीव के होती है । इसी प्रकार शेष सात कर्मों के विषय में कहना चाहिए।'
वेदनवेदनविधान में यह बताया गया है कि नैगम नय की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् बध्यमान वेदना है, कथंचित् उदीर्ण वेदना है, कथंचित् उपशान्त वेदना है, कथंचित् बध्यमान वेदनाएँ हैं, कथंचित् उदीर्ण वेदनाएँ हैं, इत्यादि ।
वेदनगतिविधान में यह निरूपण किया गया है कि नगम, व्यवहार एवं संग्रह नय की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् अवस्थित है, कथंचित् स्थित-अस्थित है । इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय के विषय में समझना चाहिए। वेदनीय वेदना कथंचित् स्थित है, कथंचित् अस्थित है, कथंचित् स्थित-अस्थित है। इसी प्रकार आयु, नाम और गोत्र के विषय में जानना चाहिए। ऋजुस्त्र नय की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् स्थित है, कथंचित् अस्थित है। इसी प्रकार शेष सात कर्मों के विषय में जानना चाहिए । शब्द नयों को अपेक्षा से अवक्तव्य है।
___वेदनअनन्तरविधान में यह प्रतिपादन किया गया है कि नंगम एवं व्यवहार नय की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय वेदना अनन्तरबन्ध है, परम्परबन्ध है तथा तदुभयबन्ध है। इसी प्रकार शेष सात कर्मों के सम्बन्ध में समझना चाहिए । संग्रह नय की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय वेदना अनन्तरबन्ध है तथा परम्परबन्ध है । इसी तरह अन्य कर्मों के विषय में समझना चाहिए। ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से
१. सू० १-१५ (वेदनस्वामित्वविधान). ३. सू० १-१२ (वेदनगतिविधान).
२. सू० १-५८ (वेदनवेदनविधान).
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