Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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कर्मप्राभृत की व्याख्याएँ
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नाम, संस्थान, उत्सेध, पंचमहाकल्याण, चौंतीस अतिशयों के स्वरूप व वंदन - सफलत्व का वर्णन करता है । वंदना में एक जिन एवं जिनालयविषयक वंदना का निरवद्य भावपूर्वक वर्णन है । प्रतिक्रमण काल और पुरुष का आश्रय लेकर सात प्रकार के प्रतिक्रमणों का वर्णन करता है । वैनयिक ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप एवं उपचारसम्बन्धी विनय का वर्णन करता है । कृतिकर्म में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु को पूजाविधि का वर्णन है । दशवैकालिक में आचार -गोचरविधि का वर्णन है । कल्पव्यवहार साधुओं के योग्य आचरण का एवं अयोग्य आचरण के प्रायश्चित्त का वर्णन करता है । कल्पाकल्पिक में मुनियों के योग्य एवं अयोग्य आचरण का वर्णन है । महाकल्पिक में काल और संहनन की अपेक्षा से साधुओं के योग्य द्रव्य, क्षेत्रादि का वर्णन किया गया है । पुण्डरीक चार प्रकार के देवों में उत्पत्ति के कारणरूप अनुष्ठानों का वर्णन करता है । महापुण्डरीक में सकलेन्द्रों और प्रतीन्द्रों में उत्पत्ति होने के कारणों का वर्णन है । निशीथिका में बहुविध प्रायश्चित्त के विधान का वर्णन है । "
अंगप्रविष्ट के बारह अर्थाधिकार हैं : १. आचार, २. सूत्रकृत, ३. स्थान, ४. समवाय, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. नाथ धर्मकथा, ७. उपासकाध्ययन, ८. अन्तकृद्दशा, ९. अनुत्तरौपपादिकदशा, १० प्रश्नव्याकरण, ११. विपाकसूत्र, १२. दृष्टिवाद |
आचारांग १८००० पदों द्वारा मुनियों के आचार का वर्णन करता है ।
सूत्रकृतांग ३६००० पदों द्वारा ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्या कल्प्य छेदोपस्थापना और व्यवहारधर्मक्रिया का प्ररूपण करता है तथा स्वसमय एवं परसमयः का प्रतिपादन करता है ।
स्थानांग ४२००० पदों द्वारा एक से लेकर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक स्थानों का वर्णन करता है ।
समवायांग १६४००० पदों द्वारा सब पदार्थों के समवाय का वर्णन करता है. अर्थात् सादृश्यसामान्य की अपेक्षा से जीवादि पदार्थों का ज्ञान कराता है ।
९. वही, पृ० ९६ - ९८; पुस्तक ९, पृ० १८८ - १९१.
२.
अंगपविट्ठस्स अत्थाधियारो बारसविहो । तं जहा, आयारो सूदयदं ठाणं समवायो वियाहपण्णत्ती णाहधम्मका उवासयज्झयणं अंतयडदसा अणुत्तरोववादियदसा पण्हवायरणं विवागसुत्तं दिट्ठिवादो चेदि ।
- पुस्तक १, पृ० १९
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