Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
'निर्वाण को प्राप्त हुए। तदनन्तर विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहुये पाँचों परिपाटी-क्रम से चतुर्दश-पूर्वधर हुए । इसके बाद विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य नागाचार्य, सिद्धार्थदेव, धृतिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन-ये ग्यारहों परिपाटी-क्रम से ग्यारह अंगों व उत्पादपूर्वादि दस पूर्वो में पारंगत तथा शेष चार पूर्वो के एकदेश के धारक हुए। तत्पश्चात् नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुस्वामी, ध्रुवसेन' और कंसाचार्य-ये पाँचों परिपाटीक्रम से सम्पूर्ण ग्यारह अंगों के तथा चौदह पूर्वो के एकदेश के धारक हुए। तदनन्तर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य-ये चारों सम्पूर्ण आचारांग के तथा शेष अंगों एवं पूर्वो के एकदेश के धारक हुए। इसके बाद सब अंगों एवं पूर्वो का एकदेश आचार्य-परम्परा से आता हुआ धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ। धरसेन भट्टारक ने पुष्पदन्त और भूतबलि को पढ़ाया । पुष्पदन्त-भूतबलि ने इस ग्रंथ की रचना की। अतः इस खण्डसिद्धान्त की अपेक्षा से ये दोनों आचार्य भी श्रुत के कर्ता कहे जाते हैं।"
श्रुत का अर्थाधिकार-श्रुत का अर्थाधिकार दो प्रकार का है : अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट । अंगबाह्य के चौदह अर्थाधिकार हैं : १. सामायिक, २. चतुविशतिस्तव, ३. वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५ वैनयिक, ६ कृतिकर्म, ७. दशवैकालिक, ८. उत्तराध्ययन, ९. कल्पव्यवहार, १०. कल्पाकल्पिक, ११. महाकल्पिक, १२. पुण्डरीक, १३. महापुण्डरीक, १४. निशीथिका।
___ सामायिक नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव द्वारा समताभाव के विधान का वर्णन करता है। चतुर्विशतिस्तव चौबीस तीर्थंकरों के वंदनविधान,
१. श्रुतावतार में ध्रुवसेन के स्थान पर द्रुमसेन का उल्लेख है ।-वही. २. श्रुतावतार में यशोभद्र के स्थान पर अभयभद्र का उल्लेख है। वही. ३. जयधवला व श्रुतावतार में यशोबाहु के स्थान पर क्रमशः जहबाहु व जयबाहु
का उल्लेख है। वही. ४. वही, पृ० ६६-७१. ५. अत्थाहियारो दुविहो, अंगबाहिरो अंगपइट्ठो चेदि । तत्थ अंगबाहिरस्स चोद्दस
अत्थाहियारा । तं जहा, सामाइयं चउवोसत्थओ वंदणा पडिक्कमणं वेणइयं किदियम्मं दसवेयालियं उत्तरज्झयणं कप्पववहारो कप्पाकप्पियं महाकप्पियं पुंडरीयं महापुंडरीयं णिसिहियं चेदि ।
-वही, पृ० ९६.
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