Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
दर्शन और ज्ञान - आत्मविषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं । दर्शन ज्ञानरूप नहीं है क्योंकि ज्ञान बाह्य पदार्थों जो अपना विषय बनाता है । बाह्य और अंतरंग विषय वाले ज्ञान और दर्शन का एकत्व नहीं है क्योंकि वैसा मानने में विरोध आता है । ज्ञान को दो शक्तियों से युक्त भी नहीं माना जा सकता क्योंकि पर्याय के पर्याय का अभाव होता है । इसलिए ज्ञान दर्शनलक्षणात्मक जीव मानना चाहिए | ये ज्ञान - दर्शन आवरणीय हैं क्योंकि विरोधी द्रव्य का सन्निधान होने पर भी इनका निर्मूल विनाश नहीं होता । यदि इनका निर्मूल विनाश हो जाय तो जीव के भी विनाश का प्रसंग उपस्थित हो जाय क्योंकि लक्षण का विनाश होने पर लक्ष्य के अवस्थान का विरोध दृष्टिगोचर होता है । दूसरी बात यह है कि ज्ञानदर्शनरूप जीवलक्षणत्व असिद्ध भी नहीं है क्योंकि इन दोनों का अभाव मानने पर जीवद्रव्य के ही अभाव का प्रसंग उपस्थित होता है । "
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श्रुतज्ञान - इन्द्रियों से गृहीत पदार्थ से पृथग्भूत पदार्थ का ग्रहण श्रुतज्ञान कहलाता है । उदाहरणार्थं शब्द से घटादि का ग्रहण तथा धूम से अग्नि की उपलब्धि श्रुतज्ञान है । यह श्रुतज्ञान बीस प्रकार का है : १. पर्याय, २ . पर्याय - समास, ३. अक्षर, ४. अक्षरसमास, ५. पद, ६. पदसमास, ७. संघात, ८, संघातसमास, ९. प्रतिपत्ति, १० प्रतिपत्तिसमास, ११. अनुयोग, १२. अनुयोगसमास, १३. प्राभृतप्राभृत, १४. प्राभृतप्राभृतसमास १५, प्राभृत, १६. प्राभृतसमास, १७. वस्तु, १८. वस्तुसमास, १९. पूर्व २०. पूर्वसमास । २
क्षरण अर्थात् विनाश का अभाव होने के कारण केवलज्ञान अक्षर कहलाता है । उसका अनन्तवाँ भाग पर्याय नामक मतिज्ञान है । यह केवलज्ञान के समान निरावरण एवं अविनाशी अर्थात् अक्षर है । इस सूक्ष्म - निगोद-लब्धि - अक्षर से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह भी कार्य में कारण के उपचार से पर्याय कहलाता है । इससे अनन्तभाग अधिक श्रुतज्ञान पर्यायसमास कहलाता है । अनन्तभागवृद्धि, असंख्येयभागवृद्धि, संख्येयभागवृद्धि, संख्येयगुणवृद्धि, असंख्येयगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिरूप एक षड्वृद्धि होती है । इस प्रकार की असंख्येयलोकप्रमाण षड्वृद्धियाँ होने पर पर्यायसमास नामक श्रुतज्ञान का अन्तिम विकल्प होता है । इसे अनन्त रूपों से गुणित करने पर अक्षर नामक श्रुतज्ञान होता है । इसके ऊपर अक्षरवृद्धि ही होती है, अन्य वृद्धियाँ नहीं होतीं । कुछ आचार्य ऐसा कहते हैं
१. पुस्तक ६, पृ० ९, ३३ - ३४; पुस्तक ७, पृ० ९६- १०२.
२. पुस्तक ६, पृ० २१.
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