Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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कर्मप्राभृत की व्याख्याएँ
८३ ......'इस अर्थ की प्ररूपणा विपुलाचल के शिखर पर स्थित त्रिकालगोचर षड्द्रव्यों का प्रत्यक्ष करने वाले वर्धमान भट्टारक द्वारा गौतम स्थविर के लिए की गई। फिर वह अर्थ आचार्य-परम्परा से गुणधर भट्टारक को प्राप्त हुआ । उनसे वह आचार्य-परम्परा द्वारा आर्यमंक्षु तथा नागहस्ती भट्टारकों के पास आया। फिर उन दोनों ने क्रमशः यतिवृषभ भट्टारक के लिए उसका व्याख्यान किया । यतिवृषभ ने शिष्यों के अनुग्रहार्थ उसे चूणिसूत्र में लिखा ।'
क्रोध-मान-माया लोभ-राग-द्वेष-मोह-प्रेम-हृदयदाह, अंगकम्प, नेत्ररक्तता, इन्द्रियों की अपटुता आदि के निमित्तभूत जोवपरिणाम को क्रोध कहते हैं । विज्ञान, ऐश्वर्य, जाति, कुल, तप और विद्याजनित उद्धततारूप जीवपरिणाम मान कहलाता है। अपने हृदय के विचारों को छिपाने की चेष्टा का नाम माया है। बाह्य पदार्थों में ममत्वबुद्धि का होना लोभ कहलाता है। माया, लोभ वेदत्रय ( स्त्री-पुरुष-नपुंसकवेद ), हास्य और रति का नाम राग है । क्रोध, मान, अरति, शोक, जुगुप्सा और भय का नाम द्वेष है । क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, और मिथ्यात्व के समूह को मोह कहते हैं। प्रियता का नाम प्रेम है ।।
शब्द व भाषा-शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है। वह छः प्रकार का है : तत, वितत, घन, सुषिर, घोष और भाषा । वीणा, त्रिसरिक, आलापिनी आदि से उत्पन्न हुआ शब्द तत है। भेरी, मृदंग, पटह आदि से उत्पन्न हुआ शब्द वितत है । जयघण्टा आदि ठोस द्रव्यों के अभिघात से उत्पन्न हुआ शब्द धन है। वंश, शंख, काहल आदि से उत्पन्न हुआ शब्द सुषिर है। घर्षण को प्राप्त हुए द्रव्य से उत्पन्न हुआ शब्द घोष है । भाषा दो प्रकार की है : अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक । द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के मुख से निकली हुई तथा बाल एवं मूक संज्ञो पंचेन्द्रिय की भाषा अनक्षरात्मक है। उपघातरहित इन्द्रियों वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय की भाषा अक्षरात्मक है । वह दो प्रकार की है : भाषा और कुभाषा । कीर, पारसिक, सिंहल, वर्वरिक आदि के मुख से निकली हुई कुभाषाएँ सात सौ भेदों में विभक्त हैं। भाषाएँ अठारह है : तीन कुरुक, तीन लाढ, तीन मरहट्ट, तीन मालव, तीन गौड़ और तीन मागध ।
१. पुस्तक १२, पृ० २३१-२३२. २. वही, पृ० २८३-२८४. ३. पुस्तक १३, पृ० २२१-२२२.
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