Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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कर्मप्राभूत की व्याख्याएँ कहना चाहिए । पृथिवीकायिक आदि का ऐसा अर्थ करने पर विग्रहगति में विद्यमान जीवों के अकायित्व का प्रसंग उपस्थित होता है। अतः पृथिवीकायिक नामकर्म के उदय से युक्त जीव पृथिवीकायिक है, ऐसा कहना चाहिए। पृथिवीकायिक नामकर्म कर्म के भेदों में नहीं गिनाया गया है, ऐसा नहीं समझना चाहिए। पृथिवीकायिक नामकर्म एकेन्द्रिय जाति-नामकर्म के अन्तर्गत समाविष्ट है। यदि ऐसा है तो सूत्रसिद्ध कर्मों की संख्या का नियम नहीं रह सकता। इसका समाधान करते हुए टीकाकार कहते हैं कि सूत्र में कर्म आठ अथवा एक सौ अड़तालीस ही नहीं कहे गये हैं। दूसरी संख्याओं का प्रतिषेध करने वाला 'एव' पद सूत्र में नहीं पाया जाता। तो फिर कर्म कितने हैं ? लोक में अश्व, गज, वृक, भ्रमर, शलभ, मत्कुण आदि जितने कर्मों के फल पाये जाते हैं, कर्म भी उतने ही होते हैं।
इसी प्रकार अप्कायिक आदि शेष कायिकों के विषय में भी कथन करना चाहिए।
चन्द्र-सूर्य-जम्बूद्वीप में दो चन्द्र और दो सूर्य हैं । लवणसमुद्र में चार चन्द्र और चार सूर्य है। धातकीखण्ड में पृथक्-पृथक् बारह चन्द्र-सूर्य हैं। कालोदक समुद्र में बयालीस चन्द्र-सूर्य हैं । पुष्कर द्वीपार्घ में बहत्तर चन्द्र-सूर्य हैं । मानुषोत्तर शैल से बाहरी ( प्रथम ) पंक्ति में एक सौ चौवालीस चन्द्र-सूर्य हैं। इससे आगे चार की संख्या का प्रक्षेप करके अर्थात् चार-चार बढ़ाते हुए बाहरी आठवीं पंक्ति तक चन्द्र-सूर्य की संख्या जाननी चाहिए। इससे आगे के समुद्र की भीतरी प्रथम पंक्ति में दो सौ अठासी चन्द्र-सूर्य हैं। इससे आगे चार-चार बढ़ाते हुए बाहरी पंक्ति तक चन्द्र-सूर्य को संख्या जाननी चाहिए । इस प्रकार स्वयम्भूरमण समुद्र तक समझना चाहिए । कहा भी है :
चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारों की दूनी-दूनी संख्याओं से निरन्तर तिर्यग्लोक द्विवर्गात्मक है।४
१. पस्तक ३, ५० ३३०. २. वही. ३. पुस्तक ४, पृ० १५०-१५१. ४. चंदाइच्चगहेहिं चेवं णक्खत्तताररूवेहि । दुगुणदुगुणेहिं णीरंतरेहि दुवग्गो तिरियलोगो॥
-वही, पृ० १५१.
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