Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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कर्मप्राभृत
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नन्त वर्गों के समुदायसमागम से ( एक वर्गणा होती है तथा अनन्तानन्त वर्गणाओं के समुदायसमागम से ) एक स्पर्धक होता है । यहाँ ये चौबीस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं : संज्ञा, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध यावत् अल्पबहुत्व | इनके अतिरिक्त भुजगारबन्ध, पदनिक्षेप, वृद्धिबन्ध, अध्यवसानसमुदाहार और जीवसमुदाहार भी ज्ञातव्य हैं । "
प्रदेशबन्ध भी मूलप्रकृतिप्रदेशबन्ध और उत्तरप्रकृतिप्रदेशबन्ध के भेद से दो प्रकार का है । आठ प्रकार की मूल - कर्मप्रकृतियों का बन्ध करने वाले जीव के आयु कर्म का भाग सबसे कम होता है, नाम एवं गोत्र कर्म का भाग उससे विशेष अधिक होता है, ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय कर्म का भाग उससे विशेष अधिक होता है, मोहनीय कर्म का भाग उससे विशेष अधिक होता है तथा वेदनीय कर्म का भाग उससे विशेष अधिक होता है । सात प्रकार की मूल - कर्मप्रकृतियों का बन्ध करने वाले जीव के नाम एवं गोत्र कर्म का भाग सबसे कम होता है, इत्यादि । यहाँ स्थान प्ररूपणा, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध आदि चौबीस अनुयोगद्वार तथा भुजगारबन्ध आदि ज्ञातव्य हैं
ग्रन्थ के अन्त में पुनः मंगलमंत्र द्वारा अरिहंतों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों एवं लोक के सब साधुओं को नमस्कार किया गया है :
णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ॥
१. महाबंध पु० ४-५.
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३. महाबंध पु० ७, पृ० ३१९.
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२. महाबंध पु० ६–७.
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