Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
को प्राप्त है, कापोतलेश्या से संलग्न है, फिर मारणांतिक समुद्धात को प्राप्त हुआ है तथा विग्रहगति के तीन काण्डक करके सप्तम नरक में उत्पन्न होगा उसके ज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृतियों को क्षेत्रप्रत्यास से गुणित करने पर ज्ञानावरण की क्षेत्रप्रत्यास-प्रकृतियों का परिमाण प्राप्त होता है। इसी प्रकार अन्य कर्मों के सम्बन्ध में भी प्ररूपणा की गई है।
वेदनभागाभागविधान का भी प्रकृत्यर्थता आदि तीन अनुयोगद्वारों में विचार किया गया है। प्रकृत्यर्थता की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृतियाँ सब प्रकृतियों का कुछ कम द्वितीय भाग है । वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र एवं अन्तराय कर्म की प्रकृतियाँ सब प्रकृतियों का असंख्यातवाँ भाग है । इसी प्रकार शेष दो अनुयोगद्वारों का भी निरूपण किया गया है ।
वेदनअल्पबहुत्व में भी प्रकृत्यर्थता आदि तीन अनुयोगद्वार है। प्रकृत्यर्थता की अपेक्षा से गोत्र कर्म की प्रकृतियां सबसे कम है। वेदनीय कर्म की भी उतनी ही प्रकृतियाँ हैं। आयु कर्म की प्रकृतियाँ उनसे संख्येयगुणित हैं । अन्तराय कर्म की प्रकृतियाँ उनसे विशेष अधिक है। मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ उनसे संख्येयगुणित हैं। नाम कर्म की प्रकृतियाँ उनसे असंख्येयगुणित हैं। दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृतियाँ उनसे असंख्येयगुणित है। ज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृतियाँ उनसे विशेष अधिक हैं। समयप्रबद्धार्थता की अपेक्षा से आयु कर्म की प्रकृतियाँ सबसे कम हैं, इत्यादि । क्षेत्रप्रत्यास की अपेक्षा से अन्तराय कर्म की प्रकृतियाँ सबसे कम है, इत्यादि । वर्गणा :
वर्गणा खण्ड में स्पर्श, कर्म और प्रकृति इन तीन अनुयोगद्वारों के साथ बन्धन अनुयोगद्वार के बन्ध और बन्धनीय इन दो अधिकारों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है । बन्धनीय के विवेचन में वर्गणाओं का विस्तृत वर्णन होने के कारण इस खण्ड को वर्गणा नाम से सम्बोधित किया जाता है ।
स्पर्श-अनुयोगद्वार-स्पर्श-अनुयोगद्वार के निम्नोक्त सोलह अधिकार हैं : १. स्पर्शनिक्षेप, २. स्पर्शनयविभाषणता, ३. स्पर्शनामविधान, ४. स्पर्शद्रव्यविधान, ५. स्पर्शक्षेत्रविधान, ६. स्पर्शकालविधान, ७. स्पर्शभावविधान, ८. स्पर्श
१. सू० १-५३ ( वेदनपरिमाणविधान ). २. सू० १-२० ( वेदनभागाभागविधान ). ३. सू० १-२६ ( वेदनअल्पबहुत्व )
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