Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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कर्मप्राभृत
६. उत्कृष्टस्थिति – पाँचों ज्ञानावरणीय, नवों दर्शनावरणीय, असातावेदनीय तथा पाँचों अन्तराय कर्मों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीस कोटाकोटि सागरोपम है । इनका आबाधाकाल ( अनुदयकाल ) तीन हजार वर्ष है । सातावेदनीय, स्त्रीवेद,. मनुष्यगति तथा मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी कर्म - प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पन्द्रह कोटाकोटि सागरोपम है । इनका आबाघाकाल पन्द्रह सौ वर्ष है । मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर कोटाकोटि सागरोपम है । इसका आबाधाकाल सात हजार वर्ष है | सोलह कषायों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चालीस कोटाकोटि सागरोम है । इनका आबाधाकाल चार हजार वर्ष है । इसी प्रकार शेष कर्म-प्रकृतियों के विषय में भी यथावत् समझ लेना चाहिए ।'
७. जघन्य स्थिति – पाँचों ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, संज्वलन लोभ और पाँचों अन्तराय कर्म - प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त है । इनका आबाघाकाल भी अन्तर्मुहूर्त है । पाँच दर्शनावरणीय और असातावेदनीय कर्मप्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम सागरोपम का भाग है । इनका भी आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त है । सातावेदनीय का जघन्य स्थितिबन्ध बारह मुहूर्त तथा आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अन्य कर्म -- प्रकृतियों के विषय में भी यथावत् समझना चाहिए । २
८. सम्यक्त्वोत्पत्ति - जीव जब इन्हीं सब कर्मों की अन्तः कोटाकोटि को स्थिति का बन्ध करता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्तक और सर्वविशुद्ध होता है, इत्यादि । 3
४७.
९. गति - आगति — जो जीव मिथ्यात्वसहित प्रथम नरक में जाते हैं उनमें से कुछ मिथ्यात्वसहित ही वहाँ से निकलते हैं । कुछ मिथ्यात्वसहित जाकर सासादनसम्यक्त्वसहित निकलते हैं । कुछ मिध्यात्वसहित जाकर सम्यक्त्वसहित निकलते हैं । सम्यक्त्वसहित वहाँ जानेवाले सम्यक्त्वसहित ही वहाँ से निकलते हैं । द्वितीय से लेकर षष्ठ नरक तक के कुछ जीव मिथ्यात्वसहित जाकर मिथ्यात्वसहित ही निकलते हैं, कुछ मिथ्यात्वसहित जाकर सासादनसम्यक्त्वसहित निकलते हैं तथा कुछ मिथ्यात्वसहित जाकर सम्यक्त्वसहित निकलते हैं । सप्तम नरक के जीव मिथ्यात्वसहित ही निकलते हैं । ४
१. सू० ४-४४ ( उत्कृष्टस्थिति ). ३. सू० ३ -१६ ( सम्यक्त्वोत्पत्ति ).
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२. सू० ३-४३.
४. सू० ४४–५२ ( गति - आगति ) ...
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