Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
मिथ्यादृष्टि नाना जीवों की अपेक्षा से सर्वदा होते हैं । एक जीव की अपेक्षा से यह काल जघन्यतया अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्टतया तैंतीस सागरोपम है, इत्यादि ।
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६. अन्तरानुगम- अन्तरानुगमरे में भी दो प्रकार का कथन होता है : सामान्य की अपेक्षा से और विशेष की अपेक्षा से । सामान्य की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि जीवों का नाना जीवों की दृष्टि से अन्तर नहीं है अर्थात् वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट दो छासठ ( एक सौ बत्तीस ) सागरोपम से कुछ कम अन्तर है । सासादनसम्यग्दृष्टि एवं सम्यक् - मिथ्यादृष्टि जीवों का अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा से जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । एक जीव की अपेक्षा से जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गलपरिवर्तन से कुछ कम है । इसी प्रकार आगे के गुणस्थानों के विषय में यथावत् समझ लेना चाहिए | 3
विशेष की अपेक्षा से नरकगतिस्थित मिध्यादृष्टि एवं असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों का नाना जीवों की दृष्टि से अन्तर नहीं है। एक जीव की दृष्टि से इनका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर तैंतीस सागरोपम से कुछ कम है । इसी प्रकार आगे भी यथावत् समझ लेना चाहिए |४
७. भावानुगम - सामान्यतया मिथ्यादृष्टि के औदयिक भाव, सासादनसम्यग्दृष्टि के पारिणामिक भाव, सम्यक् - मिथ्यादृष्टि के क्षायोपशमिक भाव एवं असंयत सम्यग्दृष्टि के औपशमिक, क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक भाव होता है । असंयतसम्यग्दृष्टि का असंयतत्व औदयिक भाव से होता है । संयतासंयत, प्रमत्तसंयत एवं अप्रमत्तसंयत के क्षायोपशमिक भाव, चार उपशमकों के औपशमिक भाव तथा चार क्षपकों, सयोगिकेवली एवं अयोगिकेवली के क्षायिक भाव होता है ।
१. सू० ३३-३४२.
२. विवक्षित गुणस्थान से गुणस्थानान्तर में संक्रमण होने पर पुनः उस गुणस्थान की प्राप्ति जब तक नहीं होती तब तक का काल अन्तर कहा जाता है ।
४. सू० २१-३९७.
३. सू० १-२० ( पुस्तक ५ ).
५. सू० १-९ ( भावानुगम ).
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