Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
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बीस प्राभृत हैं जिनमें चतुर्थं प्राभृत कर्मप्रकृति है । " इस कर्मप्रकृति प्राभृत से
ही षट्खंड सिद्धान्त की उत्पत्ति हुई है । कर्मप्राभृत के प्रणेता :
में
उल्लेख है कि सौराष्ट्र अंगश्रुत के विच्छेद के आचार्यों के पास एक
षट्खण्ड सिद्धान्तरूप कर्मप्राभृत आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि की रचना है । इन्होंने प्राचीन कर्मप्रकृति प्राभृत के आधार से प्रस्तुत ग्रन्थ का निर्माण किया । कर्मप्राभृत ( षटखण्डागम ) की धवला टीका देश के गिरिनगर की चन्द्रगुफा में स्थित धरसेनाचार्य ने भय से, महिमा नगरी में सम्मिलित हुए दक्षिणापथ के लेख भेजा । आचार्यों ने लेख का प्रयोजन भलीभाँति समझकर शास्त्र धारण करने में समर्थं दो प्रतिभासम्पन्न साधुओं को आन्ध्र देश के वेन्नातट से घरसेनाचार्य के पास भेजा । धरसेन ने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र व शुभ वार में उन्हें ग्रन्थ पढ़ाना प्रारम्भ किया । क्रमशः व्याख्यान करते हुए आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी के पूर्वाह्न में ग्रन्थ समाप्त किया । समाप्ति से प्रसन्न हुए भूतों ने उन दो साधुओं में से भारी पूजा की जिसे देख कर धरसेन ने उसका की भूतों ने पूजा कर अस्त-व्यस्त दंतपंक्ति को समान कर दिया जिसे देखकर धरसेन ने उसका नाम 'पुष्पदन्त' रखा । वहाँ से अङ्कुलेश्वर में वर्षावास किया । वर्षावास समाप्त कर आचार्य पुष्पदन्त वनवास गये तथा भट्टारक भूतत्रलि द्रमिलदेश पहुँचे । पुष्पदन्त ने जिनपालित को दीक्षा देकर ( सत्प्ररूपणा के ) बीस सूत्र बना कर जिनपालित को पढ़ा कर भूतबलि के पास भेजा । भूतबलि ने जिनपालित के पास बीस सूत्र देखकर तथा पुष्पदन्त को अल्पायु जान कर महाकर्मप्रकृतिप्राभृत ( महाकम्मपय डिपाहुड ) के विच्छेद की आशंका से द्रव्यप्रमाणानुगम से प्रारम्भ कर आगे की ग्रंथ - रचना की । अतः इस खण्डसिद्धान्त की अपेक्षा से भूतबलि और पुष्पदन्त भी श्रुत के कर्ता कहे जाते हैं । इस प्रकार मूलग्रन्थकर्ता वर्धमान भट्टारक हैं, अनुग्रंथकर्ता गौतमस्वामी हैं तथा उपग्रन्थकर्ता राग-द्वेष-मोहरहित भूतबलि-पुष्पदन्त मुनिवर हैं । २
विनयपूर्वक ग्रन्थ की परिसे एक की पुष्पावली आदि नाम 'भूतबलि' रखा । दूसरे
प्रस्थान कर उन दोनों ने
१. अग्गेणियस्स पुण्वस्त पंचमस्स वत्थुस्स चउत्थो पाहुडो कम्मपयडी
णाम ।। ४५ ।
-- षट्खण्डागम, पुस्तक ९, पृ० १३४.
२. षट्खण्डागम, पुस्तक १, पृ० ६७-७२.
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