Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
३६
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
विभंगज्ञान संज्ञी मिथ्यादृष्टि तथा सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों को होता है। यह पर्याप्तकों को ही होता है, अपर्याप्तकों को नहीं । सम्यक-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में प्रारम्भ के तीनों ज्ञान अज्ञान से मिश्रित होते हैं। आभिनिबोधिकज्ञान मत्यज्ञान से, श्रुतज्ञान श्रुताज्ञान से तथा अवधिज्ञान विभंगज्ञान से मिश्रित होता है। आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। मनःपर्ययज्ञानी प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। केवलज्ञानी सयोगिकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध-इन तोन अवस्थाओं में होते हैं।'
संयम की अपेक्षा से जोव सामायिकशुद्धिसंयत, छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धि संयत, यथाख्यातविहारशुद्धि संयत, संयतासंयत व असंयत होते हैं । संयत प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगिकेवली तक होते हैं। सामायिकशुद्धिसंयत व छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं। परिहारशुद्धिसंयत प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-इन दो गुणस्थानों में होते हैं । सूक्ष्मसांपरायिकशुद्धिसंयत केवल सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत गुणस्थान में ही होते हैं । यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली-इन चार गुणस्थानों में होते हैं। संयतासंयत एक संयतासंयत गुणस्थान में ही होते हैं। असंयत एकेन्द्रिय से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं।
दर्शन की अपेक्षा से जीव चक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनी, अवधिदर्शनी एवं केवलदर्शनी होते हैं। चक्षुर्दर्शनी चतुरिन्द्रिय से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। अचक्षुर्दर्शनी एकेन्द्रिय से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं । अवधिदर्शनी असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं । केवलदर्शनी सयोगिकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध-इन तीन अवस्थाओं में होते हैं। ३
लेश्या की अपेक्षा से जीव कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या एवं अलेश्यावाले होते हैं। कृष्णलेश्या, नीललेश्या तथा कापोतलेश्या वाले जीव एकेन्द्रिय से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि पर्यन्त होते हैं । तेजोलेश्या तथा पद्मलेश्या वाले जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत पर्यन्त
१. सू० ११५-१२२.
२. सू० १२३-१३०.
३. सू० १३१-१३५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org