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पं० श्री कैलाशचन्द्र ने शिव और ऋषभ के एकीकरण की जो सम्भावना प्रकट की है और जैन तथा शैव धर्म का मूल एक परम्परा में खोजने का जो प्रयास किया है' वह सर्वमान्य हो या न हो किन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि ऋषभ का व्यक्तित्व ऐसा था जो वैदिकों को भी आकर्षित करता था और उनकी प्राचीनकाल से ऐसी प्रसिद्धि रही जिसकी उपेक्षा करना सम्भव नहीं था । अतएव ऋषभचरित ने एक या दूसरे प्रसङ्ग से वेदों से लेकर पुराणों और अन्त में श्रीमद्भागवत में भी विशिष्ट अवतारों में स्थान प्राप्त किया है । अतएव डॉ० जेकोबी ने भी जैनों की इस परम्परा में कि जैनधर्म का प्रारम्भ ऋषभदेव से हुआ हैसत्य की सम्भावना मानी है । २
डॉ० राधाकृष्णन् ने यजुर्वेद में ऋषभ, अजितनाथ और अरिष्टनेमि का उल्लेख होने की बात कही है किन्तु डॉ० शुबिंग मानते हैं कि वैसी कोई सूचना उसमें नहीं है | पं० श्री कैलाशचन्द्र ने डॉ० राधाकृष्णन् का समर्थन किया है । किन्तु इस विषय में निर्णय के लिए अधिक गवेषणा की आवश्यकता है ।
एक ऐसी भी मान्यता विद्वानों में प्रचलित है कि जैनों ने अपने २४ तीर्थंकरों को नामावलि की पूर्ति प्राचीनकाल में भारत में प्रसिद्ध उन महापुरुषों के नामों को लेकर की है जो जैनधर्म को अपनानेवाले विभिन्न वर्गों के लोगों में मान्य थे । इस विषय में हम इतना ही कहना चाहते हैं कि ये महापुरुष यज्ञों की हिंसक यज्ञों की प्रतिष्ठा करनेवाले नहीं थे किन्तु करुणा की आध्यात्मिक साधना की प्रतिष्ठा करनेवाले थे — ऐसा की कोई बात नहीं हो सकती ।
जैनपरम्परा में ऋषभ से लेकर भगवान् महावीर तक २४ तीर्थङ्कर माने जाते
तीर्थङ्करों की जो कथाएँ
हैं उनमें से कुछ ही का निर्देश जैनेतर शास्त्रों में है। जैनपुराणों में दी गई हैं उनमें ऐसी कथाएँ भी हैं जो नामान्तरों से । अतएव उनपर विशेष विचार न विशेष विचार करना है जिनका नामसाम्य अन्यत्र बिना नाम के भी निश्चित प्रमाण मिल सकते हैं ।
१. जै० सा० इ० पू० पृ० १०७.
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ओर त्याग तपस्या की तथा माना जाय तो इसमें आपत्ति
अन्यत्र भी प्रसिद्ध हैं किन्तु करके यहाँ उन्हीं तीर्थंकरों पर उपलब्ध है या जिनके विषय में
२. जै० सा० इ० पू०, पृ० ५.
३. Doctrine of the Jainas, p. 28, Fn. 2.
४. जै० सा० इ० पू० पृ० १०८.
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५. Doctrine of the Jainas, p. 28.
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