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प्रथम परिवेद : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व/
उद्गिरन्ति सदोरसोद्रेकं गृह्यमाणाः पुरः-पुरः।।२५
इस प्रकार प्रायः प्रत्येक जैन काव्य शास्त्री ने काव्य में रस की अनिवार्यता को स्वीकार किया है।
प्राचीन भारतीय ग्रन्थों की काव्य-सम्बन्धी मान्यताएं
वेद ज्ञान का अनन्त भण्डार है तथा वह धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, दार्शनिक एवं साहित्यिक क्रिया कलापों का सार-संग्रह है। काव्य के सम्बन्ध में भी हमें सर्वाधिक प्राचीन सूचना वेद (ऋग्वेद) में प्राप्त होती है जहाँ 'उषा' सम्बन्धित एक ऋचा में बार-बार उपमाओं की योजना हुई है। एक अन्य मन्त्र में वहाँ अतिशयोक्ति का सुन्दर चित्रण किया गया है। इसी प्रकार उपनिषद् ग्रन्थों में भी 'रूपशतिशयोक्ति' का वर्णन देखने योग्य है। यास्क की निरुक्त में 'भूतोपमा', 'सिद्धोपमा', लुप्तोपमा तथा रूपक आदि के विषय में कुछ मौलिक बातें कही गयी है।
यास्क के पूर्व 'भागुरि' नामक कवि का उल्लेख है, जिसे सोमेश्वर ने अपने 'साहित्य द्रुम' ग्रन्थ के संख्यालङ्कार प्रकरण में उद्धृत किया है।
अभिनव गुप्त ने भी ध्वन्यालोका में भागुरि का एक रस विषयक मन्तव्य दिया है। वैयाकरण पाणिनि ने अष्टाध्यायी में उपमा के उपमित उपमान एवं सामान्य आदि धर्मों का उल्लेख किया है, जिससे यह प्रतीत होता है कि 'अष्टाध्यायी से विस्तृत संस्कृत के लौकिक पक्ष का उदय हुआ है। आचार्य राजशेखर ने काव्य की उत्पत्ति का सम्बन्ध नटराज शंकर से
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