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और घरके माय उसका कोई मेल नहीं दीख पड़ता। घरोमे मा बाप, भाई बन्धु जो कुछ बातचीत करते हैं और जिन विषयोंकी आन्दोचना करते हैं हमारे विद्यालयोंकी शिक्षाके साथ उनका कोई मल नहीं, बल्कि अकसर विरोध ही रहता है। ऐसी अवस्थामें हमारे विषाव्य एक प्रकारके एञ्जिन हैवे वस्तुयें तो बना सकते है. पर उनमें प्राण नहीं डाल सकते। हमें उनसे प्राणहीन विद्या मिलती है।
- इसी लिए कहते है कि यूरोपके विद्यालयोंकी ठीक ज्योंकी त्यो बाहरी नकल करनेसे ही ऐसा न समझ लेना चाहिए कि हमने वैसे ही विद्यालय पा लिये जैसे कि यूरोपमें है । इस नकलमे वैसी ही वेचे, वैसी ही कुर्सियों, टेबिलें और वैसी ही कार्यप्रणालियों मिल सकती है. इनमे कोई फर्क नहीं रहता, परन्तु हमारे लिए ये सब ऊपरी पदार्थ एक तरहके बोझे है।
पूर्वकालमे जब हम गुरुओंसे शिक्षा पाते थे शिक्षकोंसे नहीं, मनुप्योंसे ज्ञान प्राप्त करते थे कलोंसे नहीं, तब हमारी शिक्षाके विपय इतने बहुत और विस्तृत नहीं थे और उस समय हमारे समाजमे जो भाव और मत प्रचलित थे उनके साथ हमारी पोथी-शिक्षाका कोई विरोध नहीं था। परन्तु यदि ठीक वैसा ही समय हम आज फिर लाना चाहें..--इसके लिए प्रयत्न करें, तो यह भी एक प्रकारकी नकल ही होगी, उसका बाहरी आयोजन बोशा हो जायगा-किसी काममें नहीं लगेगा।
अतएव यदि हम अपनी वर्तमान आवश्यकताओको अच्छी तरह समझते हों तो हमें ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे विद्यालय हमारे घरका काम कर सकें, पाठ्य विषयोंकी विचित्रताके साथ