Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
View full book text
________________
-१०
]
[ जैन कथा संग्रह उधर प्रभु निर्वाण को प्राप्त हुए, गौतम वापस आने लगे तो सुना प्रभु निर्वाण को प्राप्त हो चुके हैं । यह समाचार सुनते ही इन्हें आघात पहुँचा, मन में सोचने लगे, प्रभो! जब शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त होने वाले थे, तो मुझे क्यों दूर भेजा ? सदा आपके साथ रहने वाले को आफ्के अन्तिम दर्शन न हुए, मेरे साथ यह बाजी क्यों खेली ? ओह,....मेरा ही हृदय कठोर है, प्रभु का निर्वाण सुनकर भी वह फट क्यों नहीं जाता, फिर विचार आया-मेरी ही भूल है, निर्मोही प्रभु में मेरा मोह था, वह मोह दूर करने के लिये ही मुझे दूर भेजा होगा, बस हो चुका, अब इस मोह का अन्त क. मुनि के लिये तो सब समान हैं, किसी के प्रति मोह या द्वेष होना ही नहीं चाहिये, इसी प्रकार विचार करते करते उन्हें केवल ज्ञान हुआ। .
अब गौतम स्वामी सर्वज्ञ हो गये। महावीर प्रभु के ११ मुख्य शिष्यों में वे सबसे बड़े थे, अतएव वे सबके नायक बने । चौदह हजार साधु उनके हाथ के नीचे रहकर पवित्र जीवन बिताते थे। - १२ वर्ष तक वे देश के पृथक-पृथक भागों में घूमे और प्रभु महावीर के उपदेशों का खूब प्रचार किया। अन्त में एक मास का उपवास करके राजगृह में निर्वाण पद को प्राप्त हुए।
गौतम स्वामी के समान कोई अन्य गुरू नहीं हुआ, इसीसे कहावत है कि गौतम समान गुरु नहीं । तथा
अमृतवास अंगूष्ठ में, अगणित लब्धि आगार । गुरु गौतम सुमरन करो, मन वांछित दातार ॥
लाखौं भक्तों के हृदय में विराजमान गुरू गौतम को अनेक बार वेदना है।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org