Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
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श्री स्थूलीभद्र ]
[ ७१ . श्रेयक की समझ में तो बात आगई परन्तु ऐसा करने के लिये उसका हृदय तैयार नहीं होता था । अन्त को पिता के बहुत आग्रह - करने पर उसने लाचार होकर दुखी हृदय से यह कार्य करना स्वीकार कर लिया।
दूसरे दिन जब शकडाल ने जाकर राजा को प्रणाम किया तो राजा ने मुह फेर लिया। उसी समय श्रेयक ने म्यान से तलवार निकाली और शकडाल का शिर भूमि पर लोटने लगा। राजा यह देखकर अवाक रह गया। उसने श्रेयक से ऐसा करने का कारण पूछाश्रेयक ने उत्तर दिया-महाराज ! ये राजद्रोही थे। राजद्रोही को रही सजा है । मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया है। कर्तव्य के मागे पिता पुत्र या सगे सम्बन्धियों से मोह नहीं किया जाता।
राजा श्रेयक की सच्ची स्वामी-भक्ति देखकर बहुत प्रसन्न हुआ नौर शकडाल की उत्तर क्रिया हो जाने के बाद श्रेयक को उसके पेता का स्थान देने के लिये कहा-श्रेयक ने उत्तर दिया । महाराज, सापकी इस कृपा के लिए अत्यन्त कृतज्ञ हूँ, परन्तु इस स्थान के
ग्य मेरे बड़े भाई स्थूलीभद्र ही हैं। __ राजा ने कहा-अच्छा, तुम्हारे कोई बड़ा भाई भी है ? परन्तु ने तो उसे कभी नहीं देखा । श्रेयक ने उत्तर दिया महाराज ! पिताजी की आज्ञा से कोशा के यहाँ रहते उन्हें १२ वर्ष बीत गए। राजा ने यूलीभद्र को बुलाने लिए संदेश भेजा।
स्थूलीभद्र रंगमहल में बैठा था। कोशा अपने अलौकिक नृत्य उसे रिझा.रही थी। अन्य वेश्यायें भी अपनी अपनी मोहक कलाओं वानगी दिखला रही थीं। इसी समय राजा के सिपाही पहुँचे । होंने स्थूलीभद्र को प्रणाम करके कहा-आपको महाराज ने याद
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