Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 166
________________ दानवीर भामाशाह ] [ १५७ हैं । परन्तु अफसोस, मेरे पास तो कुछ भी नहीं। भामाशाह "बस हो गया। मातृभूमि का उद्धार । अबतो मन मसोस कर रह जाने के सिवा और क्या चारा है ? तुमने मेरी बहत सेवा की है। तुम्हारा अहसान में भूल नहीं सकता। अब जाओ तुम देश में जाकर रहो । मैं सिन्धु के उस पार जाकर गुप्त रूप से जीवन बिता दूंगा। मातृभुमि, तुम्हें अन्तिम नमस्कार है । क्षमा करना जननी ! राजा तुम्हारी कुछ सेवा न कर सका। भामाशाह की आंखों में आंसू आगये । कण्ठ रुक गया। थोड़ी देर बाद धैर्य धारण करके उन्होंने कहा-महाराणा ! मेवाड़ को स्वाधीन तो करना ही है। क्या मातृभूमि को ऐसे हो छोड़ जाआगे ? नहीं, महाराज उसे स्वाधीन करना ही होगा। प्रताप ने कहा-भामाशाह, अब विजय की कोई आशा नहीं शक्ति ही कहां है ? अब भाग जाना ही उचित है। भामाशाह ने नम्रता पूर्वक कहा-महाराज, आप चिन्ता न कीजिये, हिम्मत न हारिये, मेरे पूर्वजों ने यथेष्ट धन संग्रह किया है। आप सेना अंकित कीजिये। प्रताप ने उत्तर दिया-यह कैसे हो सकता है ? क्या में प्रजा का धन ले सकता हूँ ? राजा को और देना चाहिये न कि लेना ? भामाशाह ने कहा--महाराज, मैं आपको नहीं देता, अपनी प्रिय जन्मभूमि के लिये अर्पण करता हूँ, मातृभूमि के लिये तो मैं मरने के लिये भी तयार हूँ फिर धन किस गणना में है ? ऐसे समय में भी काम न आवे तो वह धन किस काम का? महाराणा ने कहा--भामाशाह-तुम्हारा देश-प्रेम और उदारता धन्य है । तुमने जैन धर्म के नाम को उज्ज्वल किया है। जैन समाज को देश-भक्ति का पाठ पढ़ाया है । मेवाड़ की विजय का श्रेय तुम्हें ही मिलेगा। आज से तुम सेनापति के पद को सुशोभित करो। चलो, सेना तैयार करें। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 164 165 166 167 168 169 170