Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
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दानवीर भामाशाह ]
[ १५५ है-बड़े वृक्ष आकाश से बातें कर रहे हैं। हरी-हरी घास का कोमल छोना बिछा है । देखते हो आंखों में ठंडक और हृदय में शान्ति ती है।
शत्रुओं ने उनका पीछा किया। फिर युद्ध हुआ । धड़ से सिर लग होने लगे। रुण्ड मुण्ड भूमि पर लुढ़कने लगे। फिर हा-हा कार व गया। । महाराणा और भामाशाह जीवन का मोह छोड़कर झूझ
हैं । दोनों हाथों में दुधारी तलवारें हैं। इस समय को उनकी रमूर्ति और रणकौशल देखने ही योग्य था। इसी बीच में शत्र
एक सरदार मौका पाकर प्रताप के पीछे आया। वह पीछे से र करना ही चाहता था कि भामाशाह ने उसे देखा और पलक रते ही वहाँ जा पहुँचा। अपनी तलवार पर वार रोक लिया। गाड़ का सूर्य अस्त होते होते रह गया। राणा के प्राण बच गये । भाग खड़े हुए।
प्रताप ने कहा - भामाशाह ! तुम वीर शिरोमणि हो । आज ने ही मेरी जान बचाई है, तुमने ही विजय दिलाई है। इस जय के यश के अधिकारी तुम्ही हो। - भामाशाह ने उत्तर दिया-नहीं, महाराणा ! मैंने तो अपना व्य पालन किया है । यश तो आपकी सूर-वीरता का ही है। __ इस युद्ध में राणा की विजय तो अवश्य हुई, परन्तु उसके पास के नाम पर एक फूटी कौड़ी न रही। न कोई सैनिक ही बचा। जंगल में चले गये।
जंगल में अनाज कहां से मिले ? सेवक जंगल के फल-फूल ले । थे। सब उन्हीं पर गुजारा करते थे । झरने का पानी पीते और
आकाश के नीचे भूमि पर सो रहते थे। कुदरत का खेल है। राणा और महामन्त्री जंगल में भटकते हैं । न रहने को घर है, जाने को अन्न।
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