Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur

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Page 168
________________ दानवीर भामाशाह [ [१५६ है। वास्तव में मेवाड़ तो भामाशाह ने ही जीता है। संसार में इनकी कीर्ति अमर रहेगी । मैं इन्हें भाग्य विधायक' तथा 'मेवाड़ उद्धारक' की उपाधि देता हूँ । हर्षवर्धन के साथ सबके मुह से निकल गया धन्य है भामाशाह, धन्य है इन का त्याग और धन्य है इनकी देश भक्ति। भामाशाह ने नम्रता से खड़े होकर कहा-मैंने कुछ भी प्रशंसनीय सेवा नहीं की। पर महाराणा को सज्जनता और आप सबकी उदारता है जो मेरी तुच्छ सेवा का इतना आदर कर रहे हैं. कर्तव्य पालन के लिए प्रशंसा की क्या आवश्यकता है ? मातृभूमि के लिए जितना त्याग किया जाय, थोड़ा ही है । बोलो गातृभूमि की जय ! मातृभूमि की जय, महाराजा की जय, मेवाड़ के पुनरुद्धारक वीरभामाशाह की जय के गगनभेदी घोषों से आकाश गूज उठा। भामाशाह की स्वदेश भक्ति, भामाशाह का त्याग जिनके हृदयों पर अंकित है वे भी सत्य हैं। भामाशाह-प्रशंसा मन्त्री की स्वामि भक्ति, प्रकट लख तथा, देश आत्म त्याग, बोले राणा प्रतापी वचन वर पुनः, तुष्ट हो सानुराग"मन्त्री पा होगया मैं, सुचतुर तुम सा, आज भामा! कृतार्थ भेजा क्या मातृ-भू ने, चुन कर तुमको, देश रक्षा हितार्थ ।। ३५ लौटे राणा वहीं से, परिजन सह ले, साथ में मन्त्रिराज, जाने से यों बचायी, सचिव- सुमोत ने, आर्य-भू लाज आज । पूजा के योग्य तू है, बणिक सचिव श्री, शील की मूर्ति त् है। है आहा ! धन्य तेरा वह धन, जननी-भक्ति की मूर्ति तू है ।। ३६ इतना था वह धन तव, हो सकता था जिससे, भामाशाह ! बारह वर्षों तक पच्चीस-हजार मनुष्यों का निर्वाह ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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