Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur

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Page 165
________________ १५६ ] [ जैन कथा संग्रह कभी कभी तो ज्यों ही खाने बैठते त्यों ही समाचार मिलता शत्रु आ गये, पास ही आ पहुँचे हैं, सब खाना पीना भूल जाते थे बीच में ही उठकर भागना पड़ता था । ऐसे कठिन समय पर भी भामाशाह निराश न होते थे । सबको धीरज बँधाते और कहते थे - प्रभु सब भला करेगें, मोबत के समय भामाशाह ने कभी महाराण का साथ नहीं छोड़ा, जहाँ राणा, वहां भामाशाह । उनका तो निश्चय ही था जो दशा राणा को, वही मेरी, जहाँ राणा, वहीं मैं, धन्य है भामाशाह की स्वामि भक्ति । घना जंगल है ऊँचे ऊँचे पहाड़ आकाश से बातें करते हैं गहरी गहरी खाईयाँ और खड्डे - पाताल का रास्ता दिखलाते हैं। सिंह और चीते की गर्जना अच्छे-अच्छों का दिल दहलाती है ! इस भयानक वन में राणा अपने साथियों के साथ रहते हैं । - भामा दोपहर का समय है, सूरज सिर पर है । प्रताप और भामा शाह एक पेड़ के नीचे बंठे बातें कर रहे हैं । राणा ने कहा शाह, यहां का जीवन कितना शान्तिमय है ? फल फूल खाना, झरन का पानी पीना, पहाड़ों पर घूमना और भूमि पर सो रहना । न लड़ा हैन झगड़ा । न राज की खटपट है, न युद्ध की मारकाट । जी चाहते है बस यहीं रहें और प्रभु का भजन करें । भामाशाह ने कहा - राणाजी, आप तो संत जैसे हैं | आप राजपाट का क्या लोभ ? ऐश-आराम की क्या लालसा ? परन्तु आ यहीं जीवन बितायें तो मेवाड़ का उद्धार कौन करेगा ? ये बातें हो ही रहीं थीं कि इतने ही में एक सेवक ने खब दी - महाराज, शत्रु आरहे हैं । .... प्रताप ने कहा -लो भामाशाह हो चुकी शान्ति की बातें अ क्या करें ? सेना हो तो युद्ध कर सकते हैं । धन हो तो सैनिक आ सक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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