Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
View full book text
________________
१५४ ]
[ जैन कथा संग्रह भामाशाह की तलवार भी गजब ढा रही थी। मूलो-गाजर तरह शत्रुओं के सिर काटती और रास्ता साफ करती जाती थी इन की शक्ति अद्भुत थी, रणकौशल अद्वितीय था, वीस अपूर्व थी।
__समय का फेर है । राणा की पराजय के लक्षण दीखने ली भामाशाह ने कहा-महाराज ! आप यहां से हट जाइये, आप जीवन रहेगा तो फिर लड़ेंगे, इस समय हट जाना । उचित है।
प्रताप ने उत्तर दिया-नहीं, भामाशाह. यह नहीं हो सकता क्षत्रिय कहीं रणक्षेत्र से पैर हटाते हैं ? मरना तो है ही, यहीं मरू इतने ही में वहां दूसरे सरदार भी आगये । सबने समझा-बुझाकर राण को वहाँ से अलग कर दिया। सब कुभलमेर के किले में जमा । गये । शत्रु ने चिढ़कर कुए में विष डलवा दिया। नीचता की है हो गई।
नगर में हा-हा कार मच गया। पानी पी-पी बालक, व स्त्री, पुरुष बिना मौत मरने लगे। पानी के बिना काम भी कैसे चले एक भारी मुसीबत आ खड़ी हुई । क्या करें और क्या न करें, कि को कोई मागे न सूझा।
भामाशाह ने कहा -महाराज ! यह किला खाली व दीजिये । हमारे यहां से अन्यत्र चले जाने पर शत्रु. प्रजा को अधि कष्ट न देंगे। प्रताप ने कहा-भामाशाह ! मेरी बुद्धि काम न देती, तुम्हें उचित प्रतीत हो सो करो।
महाराणा ने रानी और बालक तथा भामाशाह और थोड़े सैनिकों को साथ लिया और चल पड़े। नगर में शोक छा गया।
वह टोली चलकर चम्बल प्रदेश में पहुँची । यह प्रदेश अत्या सुन्दर और मनोहर था। आस-पास अरावली पर्वत की श्रेणियां
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org