Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
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[ जैन कथा संग्रह
तदनंतर संघ ने अन्य दो साधुओं को भेजा और उनसे कहा कि तुः आचार्य श्री से जाकर पूछो कि संघ की आज्ञा का उल्लंघन करने वा को क्या दंड मिलना चाहिये ? यदि वे कहें कि उसे संघ से बाहर क देना चाहिये तो तुम कहना कि आप इस दंड के भागी हैं। __ मुनियों ने वहां जाकर इसी प्रकार प्रश्न किया । तब आचार्य ने कहा कि संघ कृपा करके बुद्धिमान साधुओं को मेरे पास भेजें। मैं उन्हें समस्त शास्त्र पढ़ा दूंगा।
__संघ को जब यह समाचार मिला तो उसने स्थूलीभद्र तथा अन साधुओं को नेपाल भेजा। स्वामी भद्रबाहु का ध्यान चालू होने बहुत थोड़ा समय मिलता था। इसलिये वे नित्य बहुत थोड़ा अभ्या कराते थे। इस प्रकार धीमे-धीमे पढ़ने से साधु उकता गये और स छोड़कर चले आये। केवल एक स्थूलीभद्र ही धैर्य पूर्वक पढ़ते रहे उन्होंने धीमे-धीमे अधिकांश शास्त्र पढ़ लिये।
स्थूलीभद्र की सातों बहिनों ने दीक्षा ले ली । जब उन्होंने सुना। स्थूलीभद्र ज्ञानाभास कर रहे हैं तो वे वंदम करने के लिये स्वामी भद्रबा के पास गई और पूछा गुरु महाराज, स्थूलीभद्र कहां है ? श्री भद्रबा ने कहा कि उस पास वाली गुफा में ध्यान लगाये बैठा होगा। वे उ गुफा की ओर चलीं। जब स्थलीभद्र को मालूम हुआ कि उन बहिनें आ रही हैं तो उन्होंने अपनी सीखी हुई विद्या का प्रभा दिखलाने के लिये सिंह का रूप धारण कर लिया। जब यक्षा आ उसकी बहिनें गुफा में पहुँची तो सिंह को देखकर आश्चर्य करने लगी उन्हें संदेह हुआ कि सिंह शायद स्थलोभद्र को खा गया होगा। उन्हो वहाँ से लौटकर सब हाल स्वामी भद्रबाहु को कहा। श्री भद्रबाहु अपने ज्ञान बल से सब हाल जानकर उनसे कहा अब तुम फिर जा स्थूलीभद्र वहीं मिलेगा। जब यक्षा आदि पुनः वहां पहुंची तो उन्ह स्थलीभद्र को वहाँ बैठे हुये पाया । परस्पर सबने सुख शांति पूछी।
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