Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
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विमलशाह ]
[ ११९ गये, कि विमल मन्त्री को अलग करके मैंने बड़ी भारी भूल की है। उन्हें इसके लिए बड़ा पश्चाताप हुआ।
चारों तरफ अपना दबदबा जमाकर, विमलशाह ने चन्द्रावतो में राजगद्दी ग्रहण की। इस समय पर भीमदेव ने अपनी तरफ से छत्र तथा चंवर भेट में भेजे । विमलशाह ने भी अपने मन से क्रोध को दूर करके ये चीजें स्वीकार करलीं।
राजा हो जाने के बाद विमलशाह एक दिन महल की अट्टारी पर चढ़कर नगर देखने लगे किन्तु उन्हें चन्द्रावती नगर कुछ दर्शनीय मालूम नहीं हुआ । अतः उन्होंने उसको फिर से बसाने का निश्चय किया।
चन्द्रावतो नगर फिर से बसाया गया। उसके बाजार सीधे तथा सुन्दर तैयार करवाये गये और बीच में विशाल चौक तथा दर्शनीय स्थान बनाये गये । नगर में सुन्दर नकाशोदार अनेक पक्के जैन-मन्दिर बनवाये गये । परमशान्ति के धाम, उपाश्रय बनाये गये तथा वावड़ी कुए, एवं तालाब भी काफी संख्या में तैयार हो गये।
_इस तरह विमलशाह सब प्रकार की सांसारिक-सम्पति प्राप्त करके, आनन्द करने लगे। इतने ही में एकबार श्री धर्मघोष सूरि नामक आचार्य वहां पधारे, उन्होंने जिन भक्ति का उपदेश दिया, तथा धर्म का असली मर्म समझाया। फिर उन्हें ने विमलशाह की तरफ लक्ष्य करके कहा कि-"विमलशाह, तुमने अपना साग जीवन, धन तथा सत्ता प्राप्त करने में ही बिता दिया है अतः अब कुछ धर्म-कार्य भी करो और कुछ परलोक सुधारने की भो पुण्य सामग्री एकत्रित करो।" विमलशाह को यह बात ठीक मालूम हुई। उन्हें अपने जीवन में की हुई अनेक भयंकर लड़ाइयों का स्मरण हो आया, जिसके कारण उन्हें बड़ा पश्चाताप हुआ। अन्त में वे गद्-गद् स्वर में
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