Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
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[ जैन कथा संग्रह
यहाँ अपने अच्छे व्यवहार से उन्होंने थोड़े ही समय में काफी नामवरी प्राप्त की।
थोड़े समय के बाद उनकी वात्सल्यमूर्ति माता का भी देहान्त हो गया, जिससे उन्हें बड़ा दुःख पहुँचा। इस दुःख को दूर करने के लिये उन्होंने शत्रुञ्जय की यात्रा की। पवित्र तीर्थ शत्रञ्जय की यात्रा करने पर किसका मन शान्त नहीं होता? उसके पवित्र वातावरण में इन दोनों भाइयों का शोक दूर हो गया। वहां से वे वापस लौटे और 'राज-सेवा की इच्छा से मार्ग में धोलका नामक ग्राम में रुक गये। यहां उनकी राज-पुरोहित सोमश्वर के साथ घनिष्ट मित्रता हो गई।
इस समय गुजरात की स्थिति बड़ी डांवाडोल थी। इसी कारण राजा वीरधवल सोच रहे थे, कि मुझे चतुर प्रधान तथा सजग सेनापति मिल जाय तो मेरी इच्छायें पूर्ण होजायें।
राज-पुरोहित को जब यह बात मालूम हुई, कि राजाजी प्रधान तथा सेनापति ढूढ़ने की चिन्ता में हैं, तो वे राजा के पास गये। वहां जाकर उन्होंने राजा से कहा-"महाराज! चिन्ता दूर कीजिये। आपको जैसे मनुष्य की आवश्यकता थी, वैसे ही दो नर-रत्न इस नगर में आये हुए हैं। वे न्याय करने में बड़े निपुण हैं, राज्य व्यवस्था खूब जानते हैं और जैन धर्म के तो मानो रक्षक ही हैं। किन्तु अन्य धर्मों के प्रति समान सद्-भाव रखते हैं। यदि आप आज्ञा दें तो मैं उन्हें आपके सामने हाजिर करूं।"
राजा ने पुरोहित को आज्ञा दी, अतः वे इन दोनों भाइयों को राजा-सभा में ले गये । वहाँ राजा के सामने सुन्दर भेंट रखकर उन दोनों भाइयों ने उन्हें प्रणाम किया। राजा वीरधवल ने इन
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