Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
View full book text
________________
महामन्त्री वस्तुपाल-तेजपाल ]
[ १२३ जैसा सुना था, वैसे ही पाया । अतः वे बोले, कि- "तुम लोगों की मुलाकात से मैं बड़ा प्रसन्न हुआ हूँ और यह सारा राज्य भार (कासेबार) तुम्हें सौंपता हूँ।" दोनों भाई यह सुनकर बड़े प्रसन्न हुये। फिर वस्तपाल ने राजा से कहा-"महाराज ! यह हम दोनों का अहोभाग्य है कि आपकी हम पर ऐसी कृपा हुई। किन्तु हमें एक प्रार्थना करनी है, उसे भी आप ध्यानपूर्वक सुन लीजिये। वह यह कि जहां अन्याय होमा, वहां हम लोग जरा भी भाग न लेंगे। राज्य का चाहे जितना जरूरी काम हो, किन्तु देवगुरु की सेवा से हम लोग न चूकमे । राज्य की सेवा करते हुए यदि आपसे कोई हमारी चुगलो करें और उसके कारण हमें राज्य छोड़कर जाने का मौका आवे, तो भी हमारे पास जो तीन लाख रुपये का धन है, वह हमारे ही पास रहने देना होगा । यदि आप इन बातों का राजपुरोहित की साक्षी से वचन दें, तब तो हम आपकी सेवा करने को तैयार हैं, नहीं तो आपका कल्याण हो।"
राजा ने इसी तरह का वचन देकर वस्तुपाल को धोलका तथा खंभात का महामन्त्री बनाया और तेजपाल को सेनापति का पद दिया।
जिस समय वस्तुपाल महामन्त्री बने, उस समय न तो खजाने में धन था और न राज्य में न्यायालय-अधिकारी लोग बहुत ज्यादा रिश्वतें खाते और राज्य की आय अपनी ही जेब में रख लेते थे। उन्हें दबाने की शक्ति किसी में भी न थी। इस सारी स्थिति को ध्यान में रखकर ही वस्तुपाल ने अपना काम शुरू किया।
वे सज्जनों का सत्कार करने लगे और जितने अधिकारी घूस खोर थे, उन्हें पकड़-पकड़ कर कड़ी सजा देने लगे। इस प्रकार की
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org